अनिल अनूप के साथ हरीश चन्द्र गुप्ता
“ई छत्तीसगढ़ है भइया…” — ये सिर्फ एक वाक्य नहीं, बल्कि भावों की वो बौछार है जिसमें रचे-बसे हैं लोकगीत, लोकनृत्य, त्योहार, परंपरा, सरलता, और संघर्ष। भारत के हृदय में बसा छत्तीसगढ़, जहां हर गली-मुहल्ले, गांव और जन-जन में मिट्टी की सोंधी गंध और अपनी संस्कृति का गहरा रंग बसता है।
माटी से महकता छत्तीसगढ़
छत्तीसगढ़, जिसे पहले मध्यप्रदेश का अंग कहा जाता था, 1 नवंबर 2000 को एक स्वतंत्र राज्य के रूप में उभरा। लेकिन इसकी आत्मा, संस्कृति और लोकजीवन सदियों पुराना है। यहां की संस्कृति वो है जो खुद को प्रकृति के साथ जोड़कर जीती है — जंगल, नदी, पर्वत, खेत और लोकगीत सब मिलकर एक आत्मीय समाज की संरचना करते हैं।
“माटी म बाना, गोबर म गंध — तेखर म हमर छत्तीसगढ़ के सुगंध”
यह कहावत उस भाव को दर्शाती है, जिसमें छत्तीसगढ़ की लोकसंस्कृति हर सांस में रची-बसी है।
लोकगीतों की धरती
यहां की गलियों से जब “सुआ”, “डंडा”, “करमा”, “पंथी”, “राऊत नाचा” जैसे लोकनृत्य और गीतों की गूंज निकलती है, तो पूरा वातावरण जीवंत हो उठता है। विशेषकर पंथी नृत्य, सतनाम पंथ के अनुयायियों का प्रमुख नृत्य, गुरु घासीदास की शिक्षाओं पर आधारित होता है, जो समानता, जातिविहीन समाज और मानवता का संदेश देता है।
करमा गीत खेतों में काम करने वाले किसानों की लय है तो सुआ गीत छत्तीसगढ़ी महिलाओं के सामूहिक उल्लास की अभिव्यक्ति है।
बिलासपुर की शान: भोजली महोत्सव, “शंकर यादव” के संग
बिलासपुर का तोड़वा विवेकानंद नगर क्षेत्र हर साल सावन के महीने में जीवंतता से गुनगुनाता है। इस क्षेत्र के भोजली महोत्सव समिति का नेतृत्व शंकर यादव द्वारा किया जाता है, जिसने इसे सिर्फ एक लोक पर्व नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक आंदोलन बना दिया है।
पारंपरिक आयोजक समिति—2023 में समिति की बैठक में पारंपरिक वेशभूषा में बेटियों को भाग लेने का निर्णय लिया गया, जिसमें शंकर यादव, गंगेश्वर सिंह उइके, सुनील भोई जैसे सदस्यों ने कार्यक्रम की रूपरेखा तय की ।
सांस्कृतिक उद्देश्य—मूल रूप से यह आयोजन युवाओं को छत्तीसगढ़ी संस्कृति से जोड़ने, यादव समाज के बीच एकता बनाने, और लोककला को बढ़ावा देने के उद्देश्य से हो रहा है ।
प्रतियोगिताएं व उत्सव
प्रति वर्ष अगस्त में आयोजित इस महोत्सव में भोजली प्रतियोगिता होती है, जिसमें पारंपरिक पोशाक में समूहों (कम से कम 7–8 सदस्यों) को अपनी रचनात्मकता दिखानी होती है ।
प्रतियोगिता में रंगारंग लोक कार्यक्रमों के साथ-साथ नकद पुरस्कार और सम्मान भी होता है, जिससे इसका स्वरूप महोत्सव जैसा जीवंत बनता है ।
समाज और संस्कृति का संगम
आयोजन सिर्फ स्थानीय नहीं, बल्कि राज्य की लोक संस्कृति की गूंज है—इसके ज़रिए युवाओं को अपनी जड़ों से जोड़ना, और छत्तीसगढ़ के लोक कला मंचों (जैसे फूल भंवरा) से परिचय कराना इसका प्रमुख मकसद है ।
कार्यक्रम में भोजली घाट पर पारंपरिक गीतों और टोकरी (भोजली टोकनी) को बोने और पूजा-अर्चना के साथ प्रकृति-पूजन की परंपरा का भी समावेश रहता है ।
बिलासपुर में विस्तार
बिलासपुर ही नहीं, बल्कि रायपुर और बस्तर जैसे अन्य जिलों में भी भोजली महोत्सव बड़े आयोजन के रूप में मनाया जाता है, जिसमें हजारों की संख्या में लोग—खासकर महिलाएं— भाग लेते हैं ।
बिलासपुर में तेज बारिश के बीच भी समारोह जारी रहता है, जहाँ महिलाएं पारंपरिक गीत गाकर भोजली घाट तक पहुँचती हैं और मितान बदने की प्रथा भी निभाती हैं ।
भोज्य परंपरा : स्वाद की थाली
छत्तीसगढ़ की थाली को देख लीजिए — जितनी सादी, उतनी ही स्वादिष्ट। यहां का फरा, चीला, अईरसा, ठेठरी, खुरमी, और चावल का पकोड़ा न सिर्फ पेट भरता है बल्कि दिल भी। चावल यहां का मुख्य भोजन है और इसलिए हर व्यंजन में चावल की मौजूदगी स्वाभाविक है।
बोरे बासी — यानी रात का बचा चावल, पानी में भीगोकर सुबह खाने की परंपरा, गर्मी में शरीर को ठंडा रखने और पाचन के लिए सर्वोत्तम माना जाता है।
त्योहारों का उल्लास
छत्तीसगढ़ में हरेली, तीजा-पोरा, गोवर्धन पूजा, छेरछेरा, और नवाखाई जैसे त्योहार सिर्फ रीति नहीं, सामाजिक एकता के महोत्सव हैं।
हरेली: किसानों का त्योहार, बैलों की पूजा, खेतों की आराधना।
तीजा: महिलाओं के लिए विशुद्ध समर्पण का पर्व — सोलह श्रृंगार, उपवास और मंगलकामना।
छेरछेरा: जब बच्चे-बूढ़े, सब गांव में घूमकर गीत गाते हैं — “छेरछेरा कोठी के धान देबे ला…” और घर-घर से अन्न मिलता है।
त्योहार यहां केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि एक सामाजिक व्यवहार हैं।
लोकशिल्प और हस्तकला
छत्तीसगढ़ की बस्तर कला दुनिया भर में प्रसिद्ध है। ढोकरा शिल्प, जो बिना किसी साँचे के हाथ से बनी जाती है, हर घर और प्रदर्शनी की शान बन चुकी है। वॉरली आर्ट, कांस्य मूर्तियाँ, और लौह शिल्प — ये सब इस मिट्टी के शिल्पियों की रचनात्मकता और मेहनत का प्रतीक हैं।
भाषा और बोली का रस
छत्तीसगढ़ी भाषा में जो मिठास है, वो सीधे दिल तक उतरती है।
“कहा जात हव, भाई?”
“का करत हव?”
“खाना खा लेहे?”
हर वाक्य में अपनापन है, आत्मीयता है। आज छत्तीसगढ़ी साहित्य भी अपना समृद्ध रूप ले रहा है। डॉ. नरेंद्र देव वर्मा, हरप्रसाद दुवे, पुष्पा वैद्य, जैसे लेखकों ने छत्तीसगढ़ी भाषा को साहित्य के मंच पर स्थापित किया।
सामाजिक ढांचा: विविधता में एकता
छत्तीसगढ़ की जनसंख्या में एक बड़ा हिस्सा आदिवासी समुदायों का है — गोंड, मुरिया, हल्बा, उरांव, कंवर जैसे जनजातियाँ, जिनकी अपनी भाषाएं, विश्वास और परंपराएं हैं।
यहां गांवों में ग्रामसभा, पंचायत, और देवतारी व्यवस्था सामाजिक संरचना को पारंपरिक और लोकतांत्रिक दोनों स्तर पर मजबूत करती है। “गौर माता” की पूजा हो या “देवगुड़ी”, हर परंपरा गांव को एकजुट रखती है।
अरण्य संस्कृति: जंगल और जीवन
छत्तीसगढ़ का 44% हिस्सा जंगलों से आच्छादित है। यही कारण है कि यह राज्य वनांचल संस्कृति का धनी है। यहां सल्हे, चार, महुआ, इमली, कुसुम, तेंदू, और लाह की आर्थिक और सांस्कृतिक उपयोगिता है। महुआ की दारू हो या इमली की चटनी — दोनों यहां की जीवनशैली के अनिवार्य हिस्से हैं।
बस्तर: संघर्ष और सौंदर्य का संगम
बस्तर — जहां एक ओर नक्सलवाद की छाया रही, वहीं दूसरी ओर सांस्कृतिक वैभव की गहराई भी है। बस्तर दशहरा, देश का सबसे लंबा चलने वाला त्योहार, यहां की सांस्कृतिक समृद्धि का प्रतीक है। यह देवी दंतेश्वरी को समर्पित होता है और इसमें राजपरिवार, आदिवासी समाज और जनजन की समान भागीदारी होती है।
पर्यटन: प्रकृति की गोद में सौंदर्य
छत्तीसगढ़ में पर्यटन के लिए सब कुछ है:
चित्रकूट जलप्रपात — भारत का नियाग्रा फॉल्स
कुटुमसर गुफाएं, कैलाश गुफा — रहस्यों और रोमांच की दुनिया
मैनपाट — छत्तीसगढ़ का मिनी तिब्बत
सरगुजा की पहाड़ियाँ, गिरौदपुरी धाम, राजिम कुंभ, और बिलासपुर का मल्हार — हर जगह इतिहास, अध्यात्म और प्रकृति की छवि झलकती है।
राजनीतिक रंगत और विकास की कहानी
राज्य बनने के बाद छत्तीसगढ़ ने विकास की नई इबारतें लिखीं। भूपेश बघेल की अगुवाई में किसान-केंद्रित योजनाएं, राजीव गांधी न्याय योजना, और गोठान परियोजना जैसी पहलें ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मज़बूत कर रही हैं।
हालांकि दूसरी ओर, राजनीतिक उथल-पुथल, गुटबाजी, और सत्ता संघर्ष ने भी राज्य की स्थिरता को बार-बार चुनौती दी है। भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और कांग्रेस के बीच लगातार सत्ता परिवर्तन, और नेताओं के बीच वर्चस्व की लड़ाई — यह सब राज्य की राजनीति का स्थायी रंग बन गया है।
2023 के चुनावों में कांग्रेस के भीतर अंतर्विरोध और बीजेपी की मजबूत वापसी की रणनीति ने माहौल गरम रखा। आने वाले समय में तीसरी शक्ति के रूप में क्षेत्रीय दलों की संभावनाएं भी देखी जा रही हैं, विशेषकर आदिवासी बहुल क्षेत्रों में।
क्रमिक विकास की दिशा में छत्तीसगढ़
कृषि से लेकर आईटी, हस्तकला से लेकर हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर, छत्तीसगढ़ अब आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ रहा है।
नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में शिक्षा, सड़क और स्वास्थ्य योजनाओं के माध्यम से परिवर्तन की हवा बह रही है।
नई पीढ़ी, जो अब केवल पारंपरिक कार्यों में नहीं बल्कि स्टार्टअप्स, नवाचार और डिजिटलीकरण की ओर अग्रसर है, एक नये छत्तीसगढ़ की तस्वीर पेश कर रही है।
ई छत्तीसगढ़ है भइया —
जहां बोली में रस है, भूख में भात है, त्योहारों में एकता है, जंगल में जीवन है, और मिट्टी में सोना।
यह राज्य सिर्फ एक भौगोलिक इकाई नहीं, यह एक जीवंत सभ्यता है। यहां की परंपराएं गहरी हैं, लोग सीधे हैं, संघर्ष असली है, और आत्मा स्वाभिमानी।
छत्तीसगढ़ बदल रहा है — लेकिन अपनी जड़ों को थामे हुए।
और यही इसकी सबसे बड़ी ताकत है।
जय जोहार! जय छत्तीसगढ़!