बिहार विधानसभा चुनाव : इन 6 सीटों पर जो पार्टी जीती उसी की बनी सरकार, 1977 से चल रहा है ट्रेंड!

प्रशांत किशोर की रिपोर्ट

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बिहार विधानसभा चुनाव 2025 को लेकर पूरे राज्य में जबरदस्त उत्साह है और मतगणना जारी है। इसी बीच एक बार फिर उन
6 महत्वपूर्ण सीटों की चर्चा जोर पकड़ चुकी है, जिन्हें बिहार की राजनीति का बैरोमीटर माना जाता है। चुनावी विश्लेषकों के अनुसार
केवटी, सकरा, सहरसा, मुंगेर, बरबीघा और पिपरा ऐसी सीटें हैं जहाँ की जीत अक्सर यह संकेत देती है कि
बिहार में सरकार किसकी बनने वाली है।

1977 से अब तक इन सीटों पर देखा गया ट्रेंड यह बताता है कि जो दल या गठबंधन यहां अच्छा प्रदर्शन करता है,
वह आमतौर पर बिहार विधानसभा चुनाव में सत्ता की दहलीज पर पहुंच जाता है। इस कारण इन सीटों पर
सिर्फ स्थानीय मतदाता ही नहीं, बल्कि पूरे राज्य की निगाहें टिकी होती हैं।

इस रिपोर्ट में हम विस्तार से समझेंगे कि आखिर क्यों ये 6 सीटें
बिहार विधानसभा चुनाव का भविष्य तय करने वाली सीटें मानी जाती हैं और इस बार का मुकाबला क्यों और भी रोमांचक हो गया है।


केवटी विधानसभा: 100% के करीब ‘सरकार बनाने’ का रिकॉर्ड

243 सीटों वाले बिहार में केवटी विधानसभा क्षेत्र का राजनीतिक इतिहास बेहद दिलचस्प रहा है।
1977 से अब तक अगर इस सीट को देखें तो यह लगभग हर बार उस दल की झोली में गई है जिसने
बिहार विधानसभा चुनाव में सरकार बनाई।

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2020 के चुनाव में भी यही हुआ—केवटी से भाजपा के मुरारी मोहन झा ने विजय दर्ज की और राज्य में
जेडीयू-भाजपा गठबंधन की सरकार बनी। इस चुनाव में भी केवटी सीट पर कांटे की टक्कर देखी जा रही है और
चुनाव विश्लेषक इसे इस बार का भी “सिग्नल सेंटर” मान रहे हैं।


सहरसा विधानसभा: मिथिलांचल की निर्णायक सीट

मिथिलांचल के पूर्वी इलाके की यह सीट कई दशक से सत्ता का भरोसेमंद पैमाना मानी जाती है।
2020 में भाजपा के आलोक रंजन झा ने जीत हासिल की थी और सत्ता गठबंधन में भाजपा महत्वपूर्ण भूमिका में थी।

इस बार बिहार विधानसभा चुनाव में सहरसा पर मुकाबला बेहद रोचक है। भाजपा ने एक बार फिर आलोक रंजन झा को मैदान में उतारा है,
जबकि महागठबंधन ने इस बार आईआईपी के इंद्रजीत गुप्ता को टिकट दिया है। परिणाम चाहे जो हो,
राजनीतिक पंडितों की मानें तो सहरसा की जीत इस बार भी बड़ा संकेत देने वाली है।


सकरा विधानसभा: 1985 को छोड़ हर बार सही संकेत

मुजफ्फरपुर जिले की सकरा सीट भी राजनीतिक भविष्यवाणी का अहम केंद्र रही है।
1977 से लेकर 2020 तक केवल एक बार—1985 में—ऐसा हुआ जब सकरा से लोकदल के
शिवनंदन पासवान तो जीत गए, लेकिन राज्य में कांग्रेस की सरकार बन गई।

पिछले चुनाव में जेडीयू ने यहां पराजय को जीत में बदला और अब 2025 के
बिहार विधानसभा चुनाव में यह सीट फिर से सुर्खियों में है। यहां का जनादेश सत्ता परिवर्तन या सत्ता बनाए रखने का संकेत देता आया है।


मुंगेर विधानसभा: परिणाम अक्सर सत्ता के साथ

मुंगेर भी उन चुनिंदा विधानसभा क्षेत्रों में शामिल है जहाँ के नतीजे लगभग सरकार के बराबर माने जाते हैं।
2020 में यहां से भाजपा के प्रणय कुमार यादव विजयी हुए थे और एनडीए सरकार बनी थी।

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1985 इस सीट में भी अपवाद रहा, जब लोकदल जीता लेकिन सत्ता कांग्रेस को मिली। इसके बाद से
मुंगेर लगातार सत्ता का रुख तय करने वाली सीट साबित हुई है।


पिपरा विधानसभा: पूर्वी चंपारण की ‘ट्रेंड मेकर’ सीट

पूर्वी चंपारण की पिपरा विधानसभा सीट को राजनीतिक विश्लेषक सत्ता संकेतक सीटों की सूची में ऊपर रखते हैं।
2015 में यहां भाजपा के श्यामबाबू प्रसाद यादव जीते थे जबकि राज्य में महागठबंधन की सत्ता बनी थी।
बाद में परिस्थितियां बदलीं और नीतीश कुमार के एनडीए में शामिल होते ही सत्ता समीकरण भी बदल गया।

इस बार भी पिपरा सीट पर भाजपा और सीपीएम के बीच सीधा मुकाबला है। पिपरा का परिणाम
2025 के बिहार विधानसभा चुनाव का वास्तविक संकेतक बनने वाला है।


बरबीघा विधानसभा: अक्सर सत्ता बनाने का इशारा

बरबीघा सीट 1977 से ही बिहार की सत्ता की राह बताती रही है।
जनता पार्टी ने 1977 में यहाँ जीत दर्ज की, जबकि 1980 से 2000 तक कांग्रेस का दबदबा रहा—और सरकार भी ज्यादातर कांग्रेस की रही।

2020 में यह सीट जेडीयू के पास गई और राज्य में एनडीए की सरकार बनी। 2025 में भी
यह सीट सत्ता समीकरण की दिशा तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली है।


क्यों इतनी खास हैं ये 6 सीटें?

इन छह सीटों—केवटी, सहरसा, सकरा, मुंगेर, पिपरा और बरबीघा—का राजनीतिक इतिहास बताता है कि
यह केवल विधानसभा क्षेत्र नहीं, बल्कि बिहार विधानसभा चुनाव का राजनीतिक बैरोमीटर हैं।
इन सीटों की सामाजिक संरचना, जातीय समीकरण, शिक्षा स्तर, क्षेत्रीय मुद्दे और ऐतिहासिक राजनीतिक झुकाव के कारण
इनके नतीजे व्यापक जनभावना को प्रतिबिंबित करते हैं।

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राजनीतिक दल भी इन सीटों को “VVIP सीट” की तरह ट्रीट करते हैं।
हर दल अपने बड़े नेताओं को यहां प्रचार में उतारता है, और यही वजह है कि इन सीटों का रिकॉर्ड लगातार
सत्ता के रुख से मेल खाता रहा है।


क्या 2025 में भी दोहराएगा यह ट्रेंड?

सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में भी यह ट्रेंड कायम रहेगा?
क्योंकि इस बार मुकाबला त्रिकोणीय भी दिख रहा है और कई सीटों पर जातीय समीकरणों में गहरा बदलाव आया है।

हालांकि ऐतिहासिक रिकॉर्ड कहता है—
“जहाँ ये छह सीटें झुकती हैं, सत्ता की कुर्सी भी अक्सर वहीं झुक जाती है।”

क्लिक करें और सवाल-जवाब पढ़ें (FAQ)

इन 6 सीटों को बिहार का ‘सत्ता सूचक’ क्यों माना जाता है?

क्योंकि 1977 से अब तक अधिकतर चुनावों में इन सीटों पर जीतने वाला दल बिहार में सरकार बनाने में सफल रहा है।
इनकी जनसंख्या संरचना व्यापक बिहार की जनभावना को दर्शाती है।

क्या 2025 में भी ट्रेंड दोहराया जाएगा?

ऐसा संभव है, क्योंकि ऐतिहासिक रिकॉर्ड मजबूत है, लेकिन बदलते राजनीतिक समीकरण इसे चुनौती देते हैं।
नतीजे ही तय करेंगे कि यह परंपरा जारी रहेगी या टूटेगी।

सबसे अधिक निर्णायक सीट किसे माना जाता है?

विश्लेषकों के अनुसार केवटी और सहरसा सबसे सटीक ‘सत्ता संकेतक’ सीटें मानी जाती हैं।
इनका रिकॉर्ड लगभग 100% रहा है।

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