Sunday, July 20, 2025
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उत्तर प्रदेश में सरकारी स्कूलों का विलय : बदलाव की शुरुआत, उम्मीदों के साथ चिंताएं भी

उत्तर प्रदेश में 10,000 सरकारी स्कूलों के विलय की योजना के तहत शिक्षा व्यवस्था में सुधार की बात की जा रही है, लेकिन ग्रामीण अभिभावकों और शिक्षकों की चिंता यह है कि इससे बच्चों की पहुंच और सुरक्षा पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है। जानिए इस नीतिगत बदलाव के दोनों पहलुओं को।

अंजनी कुमार त्रिपाठी की रिपोर्ट

उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा प्राथमिक शिक्षा के ढांचे में एक बड़े बदलाव की शुरुआत की गई है। इस नीति के तहत राज्य के 10,000 सरकारी स्कूलों को विलय कर दूसरे स्कूलों में शामिल किया जा रहा है। इस कदम का उद्देश्य संसाधनों का समुचित उपयोग और शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार करना है। हालांकि, यह निर्णय ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले बच्चों और उनके परिवारों के लिए कई नई चुनौतियाँ भी लेकर आया है।

अमित की कहानी: 200 मीटर से दो किलोमीटर की दूरी तक का सफर

लखनऊ के बाहरी इलाके काकोरी ब्लॉक में रहने वाला आठ वर्षीय अमित अब तक 200 मीटर चलकर पास के स्कूल पहुंच जाता था। लेकिन उसके स्कूल का विलय होने के बाद, अब उसे दो किलोमीटर दूर दूसरे गांव के स्कूल में जाना होगा। अमित कहता है, “अब मुझे पापा के साथ साइकिल पर जाना होगा, लेकिन वो हर दिन तो फुर्सत में नहीं रहते।” यह छोटी सी बात हजारों बच्चों के लिए बड़ी मुश्किल का रूप ले सकती है।

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विलय का उद्देश्य: एकीकृत संसाधन और मजबूत शिक्षा तंत्र

सरकारी अधिकारियों के अनुसार, यह कदम राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020 के अंतर्गत उठाया गया है, ताकि 50 से कम नामांकन वाले स्कूलों को एकीकृत कर सशक्त शिक्षण संस्थान बनाए जा सकें। अपर मुख्य सचिव (बेसिक शिक्षा) दीपक कुमार का कहना है कि, “इससे बुनियादी ढांचे, स्मार्ट क्लासेस और शिक्षकों का बेहतर उपयोग होगा। हिमाचल प्रदेश और गुजरात में पहले ही ऐसे प्रयोग सफल हो चुके हैं।”

नामांकन में गिरावट: आंकड़े क्या कहते हैं?

शिक्षा विभाग के आंकड़े बताते हैं कि कोविड-19 के बाद से नामांकन में लगातार गिरावट आई है:

2022-23: 1.92 करोड़

2023-24: 1.68 करोड़

2024-25: 1.48 करोड़

2025-26: लगभग 1 करोड़

इस गिरावट को देखते हुए सरकार का तर्क है कि विलय से छात्रों का ध्यान शिक्षा की ओर बढ़ेगा और स्कूल छोड़ने वालों की संख्या में कमी आएगी।

जनता की दो राय: कोई आशान्वित तो कोई चिंतित

सीतापुर की मजदूर महिला रितु देवी कहती हैं, “पहले स्कूल पांच मिनट पर था, अब खेतों और सड़कों को पार करके जाना होगा। रोज कौन छोड़ेगा?” वहीं, किसान सुरेश सिंह को डर है कि भीड़भाड़ से पढ़ाई का स्तर और गिरेगा।

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इसके विपरीत, कुछ लोग इस पहल को सकारात्मक मानते हैं। पिता देवताराम वर्मा कहते हैं, “अगर शिक्षकों और सुविधाओं की संख्या बढ़ेगी, तो बच्चों को फायदा होगा।”

शिक्षकों की चिंता: दूरी से टूटेगा संपर्क

शिक्षकों का कहना है कि स्कूलों का बच्चों से जुड़ाव सिर्फ शिक्षण तक सीमित नहीं है। रायबरेली की एक शिक्षिका बताती हैं, “हम गांव-गांव जाकर बच्चों को स्कूल लाने का प्रयास करते हैं, लेकिन दूर स्कूलों से यह प्रयास कमजोर हो जाएगा।” एक अन्य शिक्षक ने कहा कि कई अभिभावक अब अपने बच्चों को स्कूल से निकालने की बात कर रहे हैं या निजी स्कूलों की ओर देख रहे हैं।

न्यायालय की भूमिका: कानूनी मुहर लेकिन सामाजिक सवाल कायम

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 16 जून और 24 जून 2025 को जारी सरकारी आदेशों के खिलाफ दायर याचिकाओं को खारिज करते हुए सरकार के इस निर्णय को वैध ठहराया है। हालांकि, यह भी साफ है कि सामाजिक और भौगोलिक विविधताओं वाले प्रदेश में ‘एक आकार सभी के लिए’ वाली नीति लागू करना मुश्किल हो सकता है।

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 सुधार की दिशा में कदम, लेकिन जमीनी तैयारी जरूरी

उत्तर प्रदेश में सरकारी स्कूलों के विलय की यह पहल दूरगामी असर डाल सकती है। जहां एक ओर यह कदम शिक्षा के क्षेत्र में संरचनात्मक सुधार लाने का दावा करता है, वहीं दूसरी ओर, इसके सामाजिक और व्यवहारिक प्रभावों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। बच्चों की सुरक्षा, परिवहन सुविधा, स्थानीय संपर्क और अभिभावकों की आर्थिक स्थिति— ये सभी कारक इस नीति की सफलता को तय करेंगे।

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