Sunday, July 20, 2025
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हरिऔध की लेखनी : जहां शब्दों ने छंदों की नई परिभाषा लिखी 

(जन्म: 15 अप्रैल 1865 – मृत्यु: 16 मार्च 1947)

हम उस महान जन की संतति हैं न्यारी।

है बार-बार जिसने बहु जाति उबारी।

है लहू रगों में उन मुनिजन का जारी॥

जिनकी पग-रज है राज से अधिक प्यारी।

है तेज हमारा अपना तेज बढ़ावे।

तो किसे ताब है आँख हमें दिखलावे॥

अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ का जीवन परिचय, साहित्यिक योगदान और खड़ी बोली के प्रथम महाकाव्य ‘प्रियप्रवास’ की विशेषता।

हिंदी साहित्य के आकाश में अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ एक ऐसे दीप के समान हैं, जिनकी ज्योति खड़ी बोली को साहित्यिक गरिमा प्रदान करने में सदैव प्रकाशमान रही है।

उनका जन्म 15 अप्रैल 1865 को उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जनपद के निजामाबाद नामक ग्राम में हुआ। पिता भोलासिंह और माता रुक्मणि देवी की गोद में पले-बढ़े हरिऔध जी बचपन से ही प्रतिभाशाली थे, परंतु स्वास्थ्यगत समस्याओं के कारण उन्हें औपचारिक विद्यालयी शिक्षा अधिक नहीं मिल सकी। बावजूद इसके, उन्होंने घर पर ही उर्दू, संस्कृत, फारसी, बांग्ला और अंग्रेज़ी जैसी विविध भाषाओं का गहन अध्ययन कर लिया।

साहित्यिक यात्रा का शुभारंभ

साहित्यिक क्षेत्र में हरिऔध जी की सक्रियता उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक अर्थात 1890 के आसपास आरंभ हुई। उसी वर्ष उन्होंने कानूनगो की परीक्षा भी उत्तीर्ण की और इस पद पर कार्य करते हुए भी साहित्य-साधना में निरंतर लीन रहे। वर्ष 1883 में निजामाबाद के मिडिल स्कूल के हेडमास्टर के रूप में उनकी नियुक्ति हुई। आगे चलकर 1923 में सेवानिवृत्त होने के पश्चात वे काशी हिंदू विश्वविद्यालय में प्राध्यापक नियुक्त हुए और 1942 तक अध्यापन कार्य किया। तत्पश्चात, वे निजामाबाद लौट आए और शेष जीवन साहित्य साधना को समर्पित कर दिया।

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प्रियप्रवास : खड़ी बोली का प्रथम महाकाव्य

हरिऔध जी को साहित्य जगत में सर्वाधिक ख्याति उनके प्रबंध काव्य ‘प्रियप्रवास’ के माध्यम से मिली, जिसे खड़ी बोली का प्रथम महाकाव्य माना जाता है। यह एक सशक्त विप्रलंभ काव्य है, जिसमें उन्होंने श्रीकृष्ण के जीवन प्रसंगों को एक नवीन दृष्टिकोण से चित्रित किया है। संस्कृत छंदों के सफल प्रयोग द्वारा उन्होंने यह सिद्ध किया कि खड़ी बोली भी ब्रजभाषा की भांति माधुर्य और सौंदर्य से परिपूर्ण हो सकती है। प्रियप्रवास के लिए उन्हें वर्ष 1938 में ‘मंगल प्रसाद पारितोषिक’ से सम्मानित किया गया।

बहुआयामी साहित्यकार

हरिऔध केवल कवि ही नहीं, अपितु एक कुशल गद्यकार, आलोचक, व्याख्याता और शिक्षाविद् भी थे। उन्होंने ‘रसकलश’ जैसे ब्रजभाषा आधारित काव्य संग्रह की रचना की, जिसमें श्रृंगारिक स्फुट कविताएं संकलित हैं। इसके अतिरिक्त उनका उपन्यास ‘ठेठ हिंदी का ठाठ’ और ‘अधखिला फूल’ भी विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। उन्होंने साहित्य की विविध विधाओं—कविता, नाटक, उपन्यास, निबंध, आलोचना—में रचनात्मक योगदान दिया।

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भाषा के प्रहरी

हरिऔध जी को खड़ी बोली के प्रारंभिक प्रहरी के रूप में सम्मान प्राप्त है। उन्होंने यह सप्रमाण सिद्ध किया कि खड़ी बोली न केवल संवाद की भाषा हो सकती है, बल्कि उसमें गूढ़तम भावनाओं की अभिव्यक्ति भी अत्यंत प्रभावी ढंग से की जा सकती है। उन्होंने आम बोलचाल की उर्दू और हिंदुस्तानी भाषाओं के मुहावरों, चुटीले चौपदों और कहावतों को अपनी कविता में स्थान देकर जनसामान्य से साहित्य को जोड़ने का कार्य किया।

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द्विवेदी युग और हरिऔध

हरिऔध जी का रचनात्मक काल भारतेंदु युग, द्विवेदी युग और छायावाद युग तक विस्तृत है, लेकिन उन्हें विशेष रूप से द्विवेदी युग का प्रतिनिधि कवि माना जाता है। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा स्थापित काव्य मर्यादाओं का पालन करते हुए उन्होंने नैतिक मूल्यों और सामाजिक यथार्थ को अपने काव्य का आधार बनाया।

शिक्षाविद् और उपदेशक रूप

काशी हिंदू विश्वविद्यालय में प्राध्यापक रहते हुए हरिऔध जी ने हिंदी भाषा और साहित्य के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वे छात्रों के लिए न केवल एक शिक्षक, बल्कि एक प्रेरणास्रोत भी रहे। उनकी रचनाओं का समावेश आज भी देश के कई विश्वविद्यालयों के बी.ए., एम.ए. पाठ्यक्रम में किया गया है। यूजीसी-नेट जैसे परीक्षाओं में भी उनके जीवन व कृतित्व से संबंधित प्रश्न पूछे जाते हैं।

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वैज्ञानिक सोच और भाषाई विविधता

हरिऔध जी ने साहित्य में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का समावेश भी किया। वे भाषाओं के पारस्परिक प्रभाव को भली-भांति समझते थे। उनके द्वारा पंजाबी, बांग्ला, उर्दू और संस्कृत का जो अध्ययन किया गया, उसका प्रभाव उनकी भाषा-शैली में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।

जीवन का अंतिम चरण

अपने जीवन के अंतिम वर्षों में उन्होंने निजामाबाद में ही रहकर साहित्यिक साधना की। 16 मार्च 1947 को उन्होंने इस संसार को अलविदा कह दिया, लेकिन उनकी रचनाएं आज भी हिंदी साहित्य प्रेमियों के हृदय में जीवित हैं।

हरिऔध जी आधुनिक हिंदी साहित्य के ऐसे पुरोधा हैं, जिन्होंने साहित्य को नई दिशा, नई भाषा और नई चेतना दी। प्रियप्रवास ने उन्हें अमरत्व प्रदान किया, तो रसकलश, ठेठ हिंदी का ठाठ और अधखिला फूल जैसी रचनाओं ने उन्हें एक सशक्त गद्यकार के रूप में प्रतिष्ठित किया। उनकी स्मृति में हर वर्ष उनकी जयंती (15 अप्रैल) पर साहित्य जगत श्रद्धांजलि अर्पित करता है।

➡️जगदंबा उपाध्याय की रिपोर्ट

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