📝 हिमांशु मोदी की रिपोर्ट
प्रदेश संगठन की सहमति बनाम जिला अध्यक्ष की अलग सूची, कार्यकर्ताओं में असंतोष और सोशल मीडिया पर तंज़—भरतपुर बना सियासी हॉट-स्पॉट।
भरतपुर संभाग में भारतीय जनता पार्टी की आंतरिक राजनीति इन दिनों तीव्र उथल-पुथल के दौर से गुजर रही है। संगठनात्मक नियुक्तियों को लेकर शुरू हुआ विवाद अब सिर्फ स्थानीय असंतोष तक सीमित नहीं रहा, बल्कि उसने प्रदेश स्तर पर पार्टी के अनुशासन, निर्णय प्रक्रिया और नेतृत्व संतुलन पर गंभीर प्रश्नचिह्न खड़े कर दिए हैं। यह पूरा घटनाक्रम अब पार्टी के भीतर ‘डबल लिस्ट’ के नाम से चर्चित हो चुका है।
हाल ही में मुख्यमंत्री की मौजूदगी में हुई एक महत्वपूर्ण बैठक के बाद यह संकेत मिले थे कि संगठनात्मक संतुलन और स्थानीय सामाजिक समीकरणों को ध्यान में रखते हुए कुछ नामों पर सहमति बन चुकी है। जानकारी सामने आई कि कामा से प्रदीप गोयल, पहाड़ी से मनोज खंडेलवाल और गोपालगढ़ से श्री भान गुर्जर को जिम्मेदारी सौंपी जा सकती है। इन नामों के बाहर आते ही भरतपुर संभाग के कई क्षेत्रों में सकारात्मक प्रतिक्रिया देखने को मिली।
विशेषकर कामा कस्बे में माहौल किसी उत्सव से कम नहीं था। व्यापार महासंघ, सामाजिक संगठनों, संत समाज और युवाओं ने खुलकर समर्थन जताया। स्थानीय कार्यकर्ताओं का कहना था कि लंबे समय बाद संगठन ने ज़मीनी पकड़, सामाजिक स्वीकार्यता और कार्यकर्ताओं की भावना को ध्यान में रखकर निर्णय लिया है। माना जाने लगा था कि अब संगठनात्मक अस्थिरता का दौर समाप्त होगा।
लेकिन राजनीति में स्थिरता अक्सर भ्रम साबित होती है। अचानक हालात तब बदल गए जब भरतपुर जिला अध्यक्ष ने प्रदेश संगठन की कथित सहमति को दरकिनार करते हुए अपनी एक अलग सूची जारी कर दी। यह सूची न केवल पहले से चली आ रही चर्चाओं से अलग थी, बल्कि इसमें शामिल नामों को लेकर कार्यकर्ताओं और स्थानीय नेताओं में गहरी नाराज़गी भी सामने आई।
इस कदम के बाद पार्टी के भीतर यह सवाल गूंजने लगा कि क्या जिला अध्यक्ष को यह अधिकार है कि वह प्रदेश नेतृत्व की स्पष्ट सहमति के बिना संगठनात्मक नियुक्तियों की घोषणा कर दे। कई वरिष्ठ नेताओं ने इसे संगठनात्मक अनुशासन के विरुद्ध बताया, जबकि कुछ ने इसे खुला शक्ति-प्रदर्शन करार दिया।
स्थानीय स्तर पर असंतोष खासतौर पर कामा क्षेत्र में गहराता दिखाई दिया। कार्यकर्ताओं का कहना है कि यदि संगठनात्मक फैसले ज़मीनी सच्चाइयों और स्थानीय जनभावना को नज़रअंदाज़ कर लिए जाएंगे, तो इसका सीधा असर पार्टी के मूल वोटर और कार्यकर्ता पर पड़ेगा। एक वरिष्ठ कार्यकर्ता ने कहा, “चुनाव के समय जवाब हमें देना पड़ता है, लेकिन फैसले कहीं और हो जाते हैं।”
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह विवाद आगामी नगरपालिका और पंचायत चुनावों में पार्टी के लिए चुनौती बन सकता है। यदि समय रहते संगठनात्मक भ्रम और असंतोष को नहीं सुलझाया गया, तो विपक्ष को इसका सीधा लाभ मिल सकता है। यह स्थिति सिर्फ संगठन के भीतर ही नहीं, बल्कि आम मतदाताओं के बीच भी नकारात्मक संदेश दे सकती है।
इसी बीच कार्यकर्ताओं के बीच एक तीखा तंज़ तेजी से फैल गया— “जिलाध्यक्ष ने तो खुद को मानो स्वयंभू मुख्यमंत्री ही घोषित कर दिया हो।” यह टिप्पणी देखते-देखते सोशल मीडिया पर मीम बनकर वायरल हो गई। फेसबुक, व्हाट्सऐप और एक्स (पूर्व ट्विटर) पर यह लाइन चर्चा का केंद्र बन गई और मामला भरतपुर से निकलकर जयपुर तक पहुंच गया।
प्रदेश स्तर पर फिलहाल कोई आधिकारिक बयान सामने नहीं आया है, लेकिन पार्टी सूत्रों के अनुसार अंदरखाने इस पूरे प्रकरण पर मंथन जारी है। नेतृत्व के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही है कि संगठनात्मक अनुशासन भी बना रहे और स्थानीय कार्यकर्ताओं का भरोसा भी कायम रहे। यदि जिला अध्यक्ष की सूची को मान्यता दी जाती है, तो यह प्रदेश संगठन की भूमिका पर सवाल खड़े करेगा। वहीं, पहले से बनी सहमति को अंतिम माना गया, तो जिला स्तर पर टकराव खुलकर सामने आ सकता है।
राजनीतिक जानकार मानते हैं कि यह विवाद सिर्फ भरतपुर तक सीमित नहीं है। यह पूरे प्रदेश में संगठनात्मक संतुलन का संकेतक बन सकता है। भारतीय जनता पार्टी लंबे समय से अपने मजबूत संगठनात्मक ढांचे के लिए जानी जाती रही है, लेकिन यह घटनाक्रम बताता है कि संवाद और समन्वय में कहीं न कहीं कमी उभर रही है।
फिलहाल भरतपुर की राजनीति अनिश्चितता के दौर में है। कार्यकर्ता स्पष्ट जवाब चाहते हैं, स्थानीय नेता स्थिति साफ होने का इंतजार कर रहे हैं और प्रदेश नेतृत्व पर सभी की निगाहें टिकी हैं। आने वाले दिनों में लिया जाने वाला फैसला सिर्फ कुछ नामों तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि वह संगठन की दिशा और विश्वसनीयता तय करेगा।
पाठकों के सवाल – जवाब
भरतपुर बीजेपी में ‘डबल लिस्ट’ विवाद क्या है?
यह विवाद जिला अध्यक्ष द्वारा प्रदेश संगठन की सहमति से अलग एक नई नियुक्ति सूची जारी करने को लेकर है, जिससे संगठन में भ्रम और असंतोष पैदा हुआ।
क्या यह विवाद चुनावों को प्रभावित कर सकता है?
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यदि असंतोष नहीं सुलझा, तो इसका असर नगरपालिका और पंचायत चुनावों में पार्टी के प्रदर्शन पर पड़ सकता है।
प्रदेश नेतृत्व की भूमिका क्या होगी?
प्रदेश नेतृत्व को संगठनात्मक अनुशासन और स्थानीय जनभावना के बीच संतुलन बनाते हुए अंतिम निर्णय लेना होगा।
क्या यह मामला सिर्फ भरतपुर तक सीमित है?
नहीं, यह विवाद पूरे प्रदेश में संगठनात्मक संतुलन और निर्णय प्रक्रिया के लिए एक नजीर बन सकता है।






