Sunday, July 20, 2025
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ईंट-पत्थर नहीं, विचारधारा का युद्ध: क्या संभल की जामा मस्जिद रहेगी? या मंदिर बनेगा?

अनिल अनूप का विशेष लेख

संभल में जामा मस्जिद की जगह मंदिर बनना चाहिए या नहीं? जानिए इस विवाद के ऐतिहासिक, सामाजिक, धार्मिक और संवैधानिक पहलुओं पर आधारित एक विश्लेषणात्मक आलेख।

भारत जैसे बहुधार्मिक देश में “धर्म” केवल एक व्यक्तिगत आस्था नहीं, बल्कि सामाजिक संरचना का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। इसलिए जब किसी ऐतिहासिक धार्मिक स्थल को लेकर सवाल उठता है—जैसे कि संभल में जामा मस्जिद रहनी चाहिए या मंदिर बनना चाहिए—तो यह प्रश्न सिर्फ धार्मिक नहीं, बल्कि ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और संवैधानिक दृष्टि से भी बेहद संवेदनशील और विचारणीय हो जाता है।

यह मुद्दा केवल ईंट-पत्थर के ढांचे का नहीं है, बल्कि उस विचारधारा का है जो समाज में समरसता या विभाजन ला सकती है। आइए, इस विषय को विस्तार से समझते हैं।

ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

सबसे पहले यह समझना जरूरी है कि संभल उत्तर प्रदेश का एक प्राचीन नगर है जिसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि अत्यंत समृद्ध है। कहा जाता है कि यह नगर महाभारत काल से भी जुड़ा रहा है और कुछ विद्वानों का मानना है कि यह “शक्य मुनि” (भगवान बुद्ध) के समय का महत्वपूर्ण स्थल रहा है।

जामा मस्जिद की स्थापना मुग़ल काल में हुई थी। यदि ऐतिहासिक रिकॉर्ड पर ध्यान दिया जाए, तो यह मस्जिद लगभग 16वीं शताब्दी में बनवाई गई थी। लेकिन कुछ हिंदू संगठनों का दावा है कि इस मस्जिद के स्थान पर पहले एक प्राचीन मंदिर था जिसे तोड़कर मस्जिद बनाई गई।

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अब सवाल यह उठता है कि यदि मस्जिद किसी मंदिर के स्थान पर बनी हो, तो क्या उसे पुनः मंदिर बनाया जाना चाहिए?

धार्मिक और सांस्कृतिक पहलू

धार्मिक भावनाएं लोगों के दिलों से जुड़ी होती हैं। हिंदू पक्ष का तर्क है कि यदि मस्जिद किसी मंदिर के ढांचे पर बनी है, तो वहां मंदिर बनाना धार्मिक न्याय होगा। वहीं मुस्लिम पक्ष का कहना है कि जामा मस्जिद उनके लिए एक पूज्य स्थल है और सदियों से वहां नमाज़ अदा होती रही है।

यहां यह ध्यान रखना आवश्यक है कि भारत की गंगा-जमुनी तहजीब हमेशा से ही धार्मिक सहिष्णुता और समरसता का प्रतीक रही है। कई स्थानों पर मंदिर और मस्जिद एक ही परिसर में शांति से सह-अस्तित्व में रहे हैं। ऐसे में कोई भी निर्णय धार्मिक भावनाओं को आहत किए बिना, सोच-समझकर लिया जाना चाहिए।

मंदिर मस्जिद की सांकेतिक तस्वीर

संवैधानिक दृष्टिकोण

भारत का संविधान धर्मनिरपेक्षता को सर्वोपरि मानता है। अनुच्छेद 25 से 28 तक प्रत्येक नागरिक को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त है। साथ ही, Places of Worship Act, 1991 यह स्पष्ट करता है कि 15 अगस्त 1947 को जो धार्मिक स्थल जिस रूप में था, उसी रूप में रहेगा।

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हालांकि, अयोध्या विवाद के बाद इस कानून की वैधानिकता पर भी चर्चा होने लगी है। सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या में “इतिहास, पुरातत्व, और भावनाओं” को संतुलित करके निर्णय सुनाया। परंतु वह निर्णय विशेष परिस्थितियों में था, जो सभी मामलों में लागू नहीं हो सकता।

सामाजिक समरसता बनाम धार्मिक पुनरुत्थान

अब सवाल यह है कि यदि कोई एक पक्ष जीतता है, तो समाज पर इसका क्या असर पड़ेगा?

अगर जामा मस्जिद को मंदिर में बदला जाता है, तो इससे एक समुदाय विशेष की भावनाएं आहत हो सकती हैं, जिससे सामाजिक तनाव पैदा होने की संभावना है।

अगर मस्जिद यथावत रहती है और हिंदू पक्ष की मांगों की अनदेखी की जाती है, तो इससे एक वर्ग में असंतोष उत्पन्न हो सकता है।

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ऐसे में सबसे उपयुक्त रास्ता यह हो सकता है कि आपसी संवाद और न्यायिक प्रक्रिया के माध्यम से समाधान निकाला जाए।

क्या समाधान हो सकता है?

1. सांझा धार्मिक स्थल का विचार

कुछ विद्वान सुझाव देते हैं कि विवादित स्थल को सांझा धार्मिक केंद्र बना दिया जाए—जहां एक भाग में मंदिर और दूसरे भाग में मस्जिद हो। इस प्रकार की पहल दुनिया के कई हिस्सों में सफल रही है।

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2. वैकल्पिक भूमि पर निर्माण

एक अन्य समाधान यह हो सकता है कि एक समुदाय को वैकल्पिक भूमि दी जाए जहां वह अपने धार्मिक स्थल का निर्माण कर सके। अयोध्या केस में भी यही रास्ता अपनाया गया था।

3. सुप्रीम कोर्ट या उच्च न्यायालय का हस्तक्षेप

संवेदनशील मामलों में न्यायालय की भूमिका निर्णायक होती है। यदि कानूनी प्रमाणों और ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर न्यायालय कोई निर्णय देता है, तो सभी पक्षों को उसे स्वीकार करना चाहिए।

संभल में जामा मस्जिद रहनी चाहिए या मंदिर बनना चाहिए?—यह प्रश्न सिर्फ धार्मिक नहीं है, बल्कि यह हमारे राष्ट्र की एकता, सामाजिक समरसता और संवैधानिक मूल्यों की परीक्षा है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत की शक्ति उसकी विविधता में है। ऐसे में किसी एक धर्म के प्रति झुकाव दिखाना न्यायसंगत नहीं होगा।

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस विषय पर कोई भी निर्णय भावनाओं के ज्वार में बहकर नहीं, बल्कि ठोस ऐतिहासिक, कानूनी और नैतिक आधार पर लिया जाए। केवल तभी हम एक ऐसे भारत की कल्पना कर सकते हैं जो धार्मिक रूप से तो विविध हो, लेकिन सामाजिक रूप से एकजुट हो।

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