माउंटेन मैन दशरथ मांझी : हौसले, प्रेम और संघर्ष से जिन्होंने पहाड़ को भी झुका दिया

दशरथ मांझी हथौड़ी और छैनी से गहलौर पहाड़ी को काटते हुए; सुनहरी सांझ की रोशनी में उनके दृढ़ हाव-भाव और बनती सड़क का पास का दृश्य

लेखक: वल्लभ भाई लखेश्री

समाचार दर्पण 24.कॉम की टीम में जुड़ने का आमंत्रण पोस्टर, जिसमें हिमांशु मोदी का फोटो और संपर्क विवरण दिया गया है।
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दशरथ मांझी हथौड़ी और छैनी से गहलौर पहाड़ी को काटते हुए, दृढ़ हाव-भाव और बनती सड़क का दृश्य
माउंटेन मैन दशरथ मांझी — 22 वर्षों की अथक मेहनत से पहाड़ को काटते हुए।

✍️ जब इंसान ठान ले तो पर्वत भी झुकता है

प्रसिद्ध कवि रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी कविता ‘वीर’ में लिखा था —

“है कौन विघ्न ऐसा जग में, टिक सके आदमी के मग में?
खम ठोक ठेलता है जब नर, पर्वत के जाते पांव उखड़।”

इन पंक्तियों का जीवंत उदाहरण हैं माउंटेन मैन दशरथ मांझी, जिन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि सच्चे इरादे, प्रेम और दृढ़ संकल्प के सामने कोई भी बाधा टिक नहीं सकती। वे एक साधारण व्यक्ति थे, पर उनकी असाधारण कहानी ने दुनिया को यह दिखाया कि असंभव शब्द केवल कमजोरों के लिए होता है।

🏡 गहलौर घाटी का संघर्षपूर्ण जीवन

दशरथ मांझी का जन्म 14 नवंबर 1934 को बिहार के गया जिले के छोटे से गाँव गहलौर में हुआ। यह गाँव पहाड़ों के बीच बसा था, जहाँ न बिजली थी, न सड़क, न अस्पताल। गरीबी, भुखमरी और बेगारी उस समय आम बात थी। मांझी के पिता भगतु मांझी मजदूर थे। बाल्यावस्था में ही मांझी ने अभाव और संघर्ष को अपना साथी बना लिया।

मां के गुजर जाने के बाद परिवार की जिम्मेदारी छोटी उम्र में ही उन पर आ गई। शिक्षा का अवसर नहीं मिला, पर जीवन ने उन्हें वह सिखाया जो किताबें नहीं सिखा सकतीं — संघर्ष, आत्मबल और आत्मसम्मान।

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⚒️ गुलामी से इंकार और आत्मनिर्भरता की राह

उस दौर में गांवों में जमींदारी प्रथा का बोलबाला था। गरीब मजदूरों से बेगारी कराई जाती थी, उनका शोषण होता था। लेकिन दशरथ मांझी का स्वभाव बगावती था। वे किसी के आगे झुकना नहीं जानते थे।

एक दिन उन्होंने तय किया कि अब दूसरों की गुलामी नहीं करेंगे। रात के अंधेरे में गांव छोड़कर धनबाद की कोयला खदानों में मजदूरी करने निकल पड़े। वहां उन्होंने मेहनत से कुछ पैसा कमाया, लेकिन परिवार की याद और पिता की ढलती उम्र उन्हें वापस गहलौर ले आई। यह वही फैसला था, जिसने आगे चलकर उनके जीवन की दिशा बदल दी।

💔 वह घटना जिसने सब कुछ बदल दिया

गहलौर में जीवन फिर सामान्य हो रहा था। उन्होंने फाल्गुनी देवी से विवाह किया, जो उनकी जीवनसंगिनी बनीं। परंतु नियति को कुछ और ही मंजूर था।

एक दिन फाल्गुनी देवी अपने पति के लिए खाना लेकर पहाड़ चढ़ रही थीं। चट्टान पर पांव फिसला और वे नीचे गिर पड़ीं। घायल अवस्था में दशरथ मांझी ने उन्हें कंधे पर उठाकर अस्पताल की ओर दौड़ लगाई, लेकिन रास्ते में ही उन्होंने दम तोड़ दिया। गांव से अस्पताल तक पहुंचने का एकमात्र रास्ता था — वह विशाल पहाड़, जिसने उनकी पत्नी की जान ले ली। यह क्षण दशरथ मांझी के जीवन का सबसे बड़ा मोड़ था।

🔨 “मैं पहाड़ काट दूंगा!” — दृढ़ निश्चय की शुरुआत

पत्नी की मृत्यु से टूटे हुए मांझी ने वहीँ पहाड़ के नीचे खड़े होकर प्रण लिया —

“अब यह पहाड़ नहीं रहेगा। मैं इसे काट दूंगा ताकि किसी और को अपनी जान न गंवानी पड़े।”

1960 में उन्होंने अपनी यात्रा शुरू की — न हथियार, न मशीनें, बस एक छेनी और हथौड़ी। गांव वाले उन्हें पागल कहते, मज़ाक उड़ाते। पर मांझी ने किसी की परवाह नहीं की। वे रोज सुबह सूर्योदय से पहले काम शुरू करते और सूर्यास्त तक पत्थर तोड़ते रहते। बारिश, गर्मी, ठंड — कोई मौसम उन्हें रोक नहीं सका।

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⛰️ 22 वर्षों की तपस्या — जब पहाड़ झुक गया

दिन हफ्तों में, हफ्ते सालों में और साल दशकों में बदल गए। 1960 से 1982 तक — पूरे 22 साल, मांझी अकेले उस पहाड़ को काटते रहे।

अंततः उनकी मेहनत रंग लाई। उन्होंने 360 फीट लंबा, 30 फीट चौड़ा और 25 फीट गहरा रास्ता बना डाला। यह मार्ग गहलौर से अत्री और वजीरगंज को जोड़ता है। पहले जहां दूरी 55 किलोमीटर थी, अब वह सिर्फ 15 किलोमीटर रह गई। यह केवल एक सड़क नहीं थी — यह थी प्रेम की सड़क, हिम्मत की सड़क, और मानवता की सड़क।

🙏 ‘माउंटेन मैन’ की पहचान और सम्मान

शुरुआत में किसी ने उनकी सराहना नहीं की, पर धीरे-धीरे दशरथ मांझी की कहानी पूरे देश में गूंजने लगी। लोग उन्हें “माउंटेन मैन” कहने लगे। बिहार सरकार ने उनके कार्य को सम्मानित किया और उनके निधन के बाद राजकीय सम्मान के साथ उनका अंतिम संस्कार किया गया।

7 अगस्त 2007 को एम्स, दिल्ली में उनका देहांत हुआ। गहलौर में आज उनकी समाधि स्थल बनी है, जिसे लोग प्रेम और प्रेरणा के प्रतीक के रूप में “बिहार का ताजमहल” कहते हैं।

🎞️ फिल्म और विरासत : ‘मांझी – द माउंटेन मैन’

2015 में उनकी जीवनगाथा पर आधारित फिल्म “मांझी – द माउंटेन मैन” रिलीज़ हुई। नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने मांझी की भूमिका निभाई और राधिका आप्टे ने फाल्गुनी देवी का किरदार। फिल्म ने दशरथ मांझी के संघर्ष को नई पीढ़ी तक पहुँचाया और उनके जीवन को अमर कर दिया। बिहार सरकार ने कई सड़कें, कॉलेज और योजनाएं उनके नाम पर रखीं, ताकि उनकी प्रेरणा सदैव जीवित रहे।

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💡 मांझी की सीख : प्रेम से बड़ा कोई प्रेरणा स्रोत नहीं

दशरथ मांझी का जीवन यह सिखाता है कि प्रेरणा कहीं से भी मिल सकती है — कभी दिल के टूटने से, तो कभी किसी के जाने से। पर जब इंसान अपने भीतर की आग को पहचान लेता है, तो कोई शक्ति उसे रोक नहीं सकती।

“प्रेरणा चाहिए तो अपने दिल से पूछो, अगर न मिले तो किसी और के दर्द को महसूस करो।”

आज जब हम चुनौतियों से हार मान लेते हैं, तब मांझी की कहानी याद दिलाती है कि हथौड़ी और छेनी से भी इतिहास लिखा जा सकता है।

🌺 संघर्ष ही सच्ची प्रेरणा है

दशरथ मांझी ने अपनी पत्नी के प्रेम को संघर्ष की ज्योति में बदल दिया। उन्होंने दिखाया कि सच्चा प्रेम केवल भावनाओं का नहीं, बल्कि कर्म का प्रतीक होता है। उनकी 22 साल की तपस्या हमें सिखाती है कि जब लक्ष्य पवित्र हो, तो साधन छोटे नहीं होते।

आज “माउंटेन मैन दशरथ मांझी” केवल एक नाम नहीं — वह एक विचार, एक दर्शन और मानवता का प्रतीक हैं। उनकी कहानी सदियों तक यह प्रेरणा देती रहेगी कि “संघर्ष ही सफलता का सबसे बड़ा मार्ग है।”

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