टिक्कू आपचे की रिपोर्ट
पुणे ज़िले के सरकारी आदिवासी हॉस्टलों में रहने वाली छात्राओं ने जो आरोप लगाए हैं, वे केवल एक प्रशासनिक लापरवाही का मामला नहीं, बल्कि यह सवाल सीधे-सीधे लड़कियों की गरिमा, आत्मसम्मान, निजता और मानसिक स्थिति से जुड़ा है। शिक्षा संस्थान बच्चे, विशेषकर लड़कियों, के लिए सुरक्षित वातावरण का प्रतीक होते हैं — लेकिन महाराष्ट्र के आदिवासी विकास विभाग के अधीन चल रहे हॉस्टलों में घटित ये घटनाएँ ठीक उल्टा चित्र पेश करती हैं।
छात्राओं का कहना है कि छुट्टियों के बाद हॉस्टल में प्रवेश के लिए यूरिन प्रेग्नेंसी टेस्ट (यूपीटी) अनिवार्य कर दिया गया है। सरकारी नियमों में इसका कहीं कोई उल्लेख नहीं है, और न ही आदिवासी विकास विभाग ने कभी ऐसी शर्त लगाई है। इसके बावजूद — और यह सबसे चिंताजनक हिस्सा है — छात्राओं का दावा है कि ‘टेस्ट रोकने के निर्देश’ के बाद भी यह प्रक्रिया जारी है।
✦ “अगर टेस्ट नहीं कराओ तो हॉस्टल में रहने की अनुमति नहीं” — छात्राओं की पीड़ा
सरकारी हॉस्टल में रहने वाली कॉलेज छात्रा स्नेहा (बदला हुआ नाम) कहती हैं—
“पहले तो समझ नहीं आया कि ये टेस्ट क्यों करवाना पड़ता है। जिस दिन हमने विरोध किया, उस दिन साफ़ कहा गया कि अगर प्रेग्नेंसी टेस्ट नहीं कराया तो हॉस्टल में रहने नहीं दिया जाएगा।”
यही कहानी आशा और रेखा (बदले हुए नाम) भी दोहराती हैं। इन सभी का आरोप एक सा है — सात–आठ दिन की छुट्टी से लौटने पर मेडिकल टेस्ट के बहाने उनसे यूपीटी किट खरीदवाई जाती है, टेस्ट कराया जाता है और रिपोर्ट नेगेटिव होने पर ही हॉस्टल में रहने की अनुमति मिलती है। जो छात्रा टेस्ट से इंकार करे? जवाब भी उतना ही सख्त — “प्रवेश नहीं मिलेगा।”
यह प्रक्रिया केवल मेडिकल टेस्ट भर नहीं, बल्कि जैसे एक संदेश है — “हम तुम पर भरोसा नहीं करते।”
✦ टेस्ट की “प्रक्रिया” — और उससे जन्मी शर्मिंदगी
छात्राओं के बयानों से टेस्ट की पूरी प्रक्रिया सामने आती है —
- मेडिकल टेस्ट फ़ॉर्म दिया जाता है
- प्रेग्नेंसी किट दी जाती है।
- सरकारी अस्पताल जाकर डॉक्टर के सामने टेस्ट कराना होता है
- पेशाब को डॉक्टर के सामने किट में डालकर जांच कराई जाती है।
- रिपोर्ट को फ़ॉर्म में लिखवाया जाता है
- फिर मैडम की मुहर और हस्ताक्षर लेकर उसे कॉलेज में जमा कराना होता है।
इस पूरी प्रक्रिया में छात्राओं ने ‘शर्मिंदगी, अपमान और मानसिक उत्पीड़न’ की भावना व्यक्त की है। अस्पताल में बैठे लोग, उपस्थित पुरुष कर्मचारी, और यहां तक कि कुछ डॉक्टरों की नजर — सब कुछ मिलकर मानसिक तनाव बढ़ाती है।
आशा कहती हैं,
“जब हम शादीशुदा भी नहीं हैं तो यह टेस्ट क्यों? लोग शक की निगाहों से देखते हैं। जैसे हमने कोई अपराध किया हो।”
✦ यह सिर्फ हॉस्टल नहीं, आश्रम स्कूल भी इससे अछूते नहीं
समस्या केवल उच्च शिक्षा वाले हॉस्टलों में ही नहीं। एक आश्रम स्कूल से भी ऐसी शिकायत सामने आई — यह और गंभीर है क्योंकि वहाँ 12वीं तक की छात्राएँ पढ़ती हैं।
एक छात्रा की माँ बताती हैं —
“सिर्फ मासिक धर्म वाली लड़कियों को मेडिकल में भेजा जाता है और वहाँ किट से पेशाब की जांच के बाद पॉज़िटिव–नेगेटिव लिखा जाता है।”
दूसरी चिंता — हर बार 150–200 रुपये खर्च करना पड़ता है। गरीबी में जीने वाले आदिवासी परिवारों पर यह अतिरिक्त आर्थिक बोझ है। स्वास्थ्य केंद्र के एक डॉक्टर ने भी नाम न छापने की शर्त पर माना कि आश्रम स्कूल के निर्देश पर ही परीक्षण कराए जाते हैं।
✦ शिक्षा और संरक्षण के नाम पर ‘शंका’ का सिस्टम?
इन घटनाओं के बाद सबसे बड़ा सवाल यह है कि किस उद्देश्य के नाम पर लड़कियों को मानसिक, भावनात्मक और सामाजिक अपमान सहना पड़ रहा है? हॉस्टल और स्कूल बच्चों की सुरक्षा के लिए होते हैं — लेकिन यहाँ सुरक्षा के नाम पर निगरानी, अविश्वास और संदेह का माहौल बनाया जा रहा है।
छात्राओं को अकेले अस्पताल भेजा जाता है, कई बार अभिभावक साथ नहीं होते, रिपोर्ट अन्य कर्मचारियों को दिखाई जाती है, हॉस्टल प्रशासन की सहमति के बिना प्रवेश संभव नहीं — ये स्थितियाँ शोषण के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों ख़तरों को जन्म देती हैं।
✦ क्या प्रशासन बेखबर है — या अनदेखा कर रहा है?
आदिवासी विकास आयुक्तालय ने 30 सितंबर को पत्र जारी कर दिया कि किसी भी लड़की पर गर्भावस्था परीक्षण के लिए दबाव नहीं डाला जाए। इसके अलावा आदिवासी विकास आयुक्त लीना बंसोड़ ने स्पष्ट कहा: “ऐसे टेस्ट की कोई बाध्यता नहीं है।” ज़िला सिविल सर्जन डॉक्टर नागनाथ येमपल्ले का दावा: “यूपीटी टेस्ट चार महीने पहले बंद कर दिया गया है।”
लेकिन छात्राओं के बयान क्या कहते हैं? अक्टूबर और नवंबर में भी टेस्ट करवाना पड़ा। यानी — “कागज़ में रोक, जमीन पर जारी।”
✦ जब शिकायत हुई — तो रोकने के बाद भी क्यों जारी है?
घटना उजागर होने के बाद राज्य महिला आयोग ने हस्तक्षेप किया था। रुपाली चाकनकर ने हॉस्टल में अचानक निरीक्षण भी किया था और कहा था —
“क़ानून में इसका कहीं उल्लेख नहीं है। इस तरह का परीक्षण लड़कियों का आत्मविश्वास तोड़ देता है।”
फिर भी लड़कियों के बयान बताते हैं कि अब भी कोई ठोस रोक लागू नहीं हुई।
✦ छात्र संगठन का विरोध — लेकिन समाधान अभी दूर
स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया (SFI) ने प्रशासन को ज्ञापन देकर परीक्षण बंद करने की मांग की। संगठन की पुणे ज़िला अध्यक्ष संस्कृति गोडे कहती हैं —
“यह सिर्फ मेडिकल टेस्ट नहीं, मानसिक उत्पीड़न है। लड़कियों पर शक करने जैसा व्यवहार है। यह टेस्ट तत्काल बंद होना चाहिए।”
लेकिन विरोध के बावजूद अभी भी हॉस्टलों में यह प्रक्रिया पूरी तरह बंद नहीं हुई है।
❖ असली समस्या क्या है — और सवाल किससे हैं?
इस पूरी स्थिति को तीन हिस्सों से समझा जा सकता है —
➊ अविश्वास आधारित सुरक्षा मॉडल
लड़कियों को संरक्षण की जगह नियंत्रण की दृष्टि से देखा जा रहा है। यह मान लेना कि छुट्टियों में लड़कियाँ गर्भवती होकर आती होंगी — न केवल भेदभावपूर्ण है बल्कि महिला की स्वतंत्रता और निजी जीवन पर असंवैधानिक दखल है।
➋ प्रशासनिक पाखंड
ऊपर से आदेश हैं — “कोई टेस्ट नहीं।” नीचे दबाव है — “टेस्ट अनिवार्य।” इससे साफ़ दिखता है कि आंतरिक निर्देशों का अमानवीय और मनमाना इस्तेमाल हो रहा है।
➌ मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर
अपमान, सामाजिक शर्म, सहपाठियों की नजर, अस्पताल में जांच की असहज प्रक्रिया, रिपोर्ट का खुला ज़िक्र — इन सभी ने छात्राओं के मन में डर, असुरक्षा और संकोच पैदा किया है। कई छात्राएँ कहती हैं कि इससे पढ़ाई पर ध्यान नहीं लग पाता।
❖ कानून और महिला अधिकारों के पैमाने पर यह कितना गलत है?
यह परीक्षण —
- महिला की निजता का उल्लंघन है
- उसकी गरिमा और आत्मसम्मान को चोट पहुँचाता है
- व्यक्तिगत स्वास्थ्य जानकारी को प्रकट करने की गैरकानूनी मजबूरी है
- अभिभावक की सहमति के बिना मेडिकल हस्तक्षेप किया जाना मानवाधिकारों के विरुद्ध है
- नाबालिग छात्राओं के साथ ऐसा होना और गंभीर अपराध की श्रेणी में आता है
और सबसे बड़ी बात — सरकारी शिक्षा संस्थानों में यह हो रहा है।
❖ आदिवासी लड़कियों पर दोहरे बोझ का सच
ये छात्राएँ सिर्फ लड़कियाँ नहीं — वे सामाजिक रूप से पिछड़े, आर्थिक रूप से कमजोर, और भौगोलिक रूप से वंचित समुदायों से आती हैं। शिक्षा तक पहुँचना ही एक संघर्ष है। और हॉस्टल को सुरक्षित मानकर अभिभावक भेजते हैं। लेकिन यहाँ — शिक्षा नहीं, संदेह उनका स्वागत करता है।
❖ समाधान क्या — और तुरंत क्या होना चाहिए?
इस मामले में ठोस समाधान तीन स्तरों पर लागू होने चाहिए —
✔ प्रशासनिक और कानूनी
गर्भावस्था परीक्षण पर स्थायी और लिखित प्रतिबंध, दोषी अधिकारियों पर विभागीय कार्रवाई, पीड़ित छात्राओं की शिकायतें गोपनीय तौर पर दर्ज करने की व्यवस्था, मेडिकल रिकॉर्ड की निजता की गारंटी।
✔ हॉस्टल संरचना
वार्डन और कर्मचारियों को मानवाधिकार आधारित व्यवहार का प्रशिक्षण, महिला सलाहकार समितियों की नियुक्ति, छात्राओं के लिए गर्ल्स सेफ्टी मैकेनिज्म डेस्क।
✔ छात्राओं की आवाज को महत्व
स्कूल–हॉस्टल मेन्टल हेल्थ काउंसलिंग, शिकायत की स्थिति में छात्राओं को ‘हानिरहित वातावरण’ में रहना सुनिश्चित किया जाए, निर्णय प्रक्रिया में छात्राओं की भागीदारी।
❖ निष्कर्ष — लड़कियों को संरक्षण दो, संदेह नहीं
सरकारी आश्रम स्कूल और हॉस्टल आदिवासी लड़कियों की शिक्षा व प्रगति के लिए बनाए गए हैं लेकिन यदि वही स्थान मानसिक तनाव, शर्म और इंजस्टिस का घर बन जाए तो इसकी संरचना और नीतियों पर प्रश्न उठना स्वाभाविक है।
लड़कियों को शिक्षित होना चाहिए लेकिन भय, अपमान और अविश्वास के साथ नहीं। आज कॉलेज और स्कूल में पढ़ रही ये छात्राएँ आने वाले समय में डॉक्टर, शिक्षक, इंजीनियर, अधिकारी, शोधकर्त्ता और समाज की प्रगति की धुरी बनेंगी। उन्हें पढ़ाई के रास्ते पर संघर्ष करना पड़े, यह स्वीकार्य है — लेकिन अपनी ही शिक्षण संस्थाओं से अपमान झेलना पड़े, यह किसी भी सभ्य समाज को स्वीकार नहीं होना चाहिए।
❓ अक्सर पूछे जाने वाले सवाल (FAQ)
क्या आदिवासी हॉस्टलों में प्रेग्नेंसी टेस्ट सरकारी नियमों के तहत अनिवार्य है?
नहीं। आदिवासी विकास विभाग और संबंधित अधिकारियों ने स्पष्ट किया है कि सरकारी नियमों में कहीं भी छात्राओं के लिए प्रेग्नेंसी टेस्ट अनिवार्य नहीं है। इसके बावजूद स्थानीय स्तर पर इसे जबरन लागू किया जाना ही विवाद और विरोध का कारण बना हुआ है।
छात्राओं के अनुसार सबसे बड़ी समस्या क्या है?
छात्राओं के मुताबिक, प्रेग्नेंसी टेस्ट की पूरी प्रक्रिया उन्हें अपमानित और शर्मिंदा करती है। अस्पताल में लोगों की नजरें, डॉक्टरों के सवाल, रिपोर्ट का खुला ज़िक्र और हॉस्टल में प्रवेश के लिए नेगेटिव रिपोर्ट की शर्त — ये सभी मिलकर उनके आत्मसम्मान और मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा असर डालते हैं।
इस मुद्दे पर छात्र संगठन और महिला आयोग ने क्या कदम उठाए हैं?
स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया (SFI) ने प्रशासन को ज्ञापन सौंपकर यूपीटी टेस्ट तत्काल बंद करने की मांग की है। वहीं राज्य महिला आयोग की अध्यक्ष ने हॉस्टल का अचानक निरीक्षण कर तथ्य जुटाए और स्पष्ट कहा कि इस तरह का परीक्षण कानून में प्रावधान न होने के साथ-साथ लड़कियों का आत्मविश्वास भी तोड़ता है।
आगे क्या बदलाव ज़रूरी माने जा रहे हैं?
रिपोर्ट और विशेषज्ञों की राय के मुताबिक, सबसे पहले गर्भावस्था परीक्षण जैसी प्रथाओं पर स्पष्ट और लिखित प्रतिबंध लगना चाहिए। साथ ही दोषी अधिकारियों पर कार्रवाई, हॉस्टलों में मानवाधिकार प्रशिक्षण, काउंसलिंग, शिकायत निवारण तंत्र और छात्राओं की निर्णय प्रक्रिया में भागीदारी जैसे कदम तुरंत उठाए जाने आवश्यक हैं।






