
– अनिल अनूप
वह हमेशा से अकेला था। भीड़ में भी, मुस्कान के बीच भी, और उन स्याही के धब्बों के नीचे भी जिन्हें वह रात-रातभर पन्नों पर बिखेर देता था।
उम्र थी केवल पैंतीस के आसपास, लेकिन चेहर की झुर्रियाँ किसी सत्तर बरस के तपस्वी का भ्रम पैदा करतीं।
शहर उसका घर नहीं था, और घर अब किसी शहर में नहीं बचा था। कल वह लखनऊ में था, आज बनारस में है, शायद परसों भोपाल या गुवाहाटी में हो — यही उसका जीवन था, यायावरी और अंतर्मन की खामोशी।
पहली मुलाकात : जब किसी के आँसू में अपनापन मिला
यायावर जीवन में लोगों से मिलना उसकी नियति थी, पर किसी से जुड़ जाना उसके लिए नया था। एक दिन, एक कस्बे के पुस्तक मेले में, उसने एक महिला को देखा — दो बच्चों के साथ, किसी कोने में खड़ी, हिचकिचाती हुई।
बच्चे उसकी किताबें पलट रहे थे, और वह बस उन्हें देखने में खोई थी। संवाद शुरू हुआ, फिर धीरे-धीरे अपनापन पनपने लगा।
महिला का नाम था मीरा — जीवन से हारी हुई, पर फिर भी अपने बच्चों के लिए जूझती हुई। पति ने छोड़ दिया था, रिश्तेदारों ने मुँह फेर लिया था, और अब बस संघर्ष का लंबा रास्ता सामने था।
अनिरुद्ध ने पहली बार किसी के दर्द में खुद को देखा। वह बोला, “अगर तुम्हें लगे कि मैं सहारा बन सकता हूँ, तो तुम्हारे बच्चों को अपना नाम दे दूँगा।”
मीरा ने चुपचाप उसकी आँखों में झाँका — शायद उसे उसी क्षण विश्वास हो गया कि यह आदमी स्वार्थ नहीं, संवेदना से भरा है। कुछ ही दिनों में वे साथ रहने लगे। मीरा के माता-पिता ने अनिरुद्ध को अपनाया, पर अनिरुद्ध के अपने परिवार ने उसे त्याग दिया। उसे इस त्याग से कोई पीड़ा नहीं हुई — क्योंकि उसे अब पहली बार घर मिला था, न कि पता।
संघर्ष के साल : जब सृजन रोटी से हार गया
शुरुआती कुछ सालों में दोनों ने जीवन को साथ मिलकर संभाला। मीरा के दो बच्चे अब स्कूल जाने लगे थे, और अनिरुद्ध कभी फैक्ट्री में काम करता, कभी मजदूरी। पर भीतर का लेखक कभी मरता नहीं।
रात के तीसरे पहर जब सब सो जाते, वह मोमबत्ती की लौ में बैठकर लिखता — कभी कविता, कभी कहानी, कभी बस एक वाक्य — “मैं शब्दों से नहीं, अपने अकेलेपन से रोटी बनाता हूँ।”
इसी बीच, अनिरुद्ध और मीरा के जीवन में एक नया बच्चा आया — एक बेटा। और उसके बाद मीरा ने परिवार नियोजन ऑपरेशन करवा लिया। तीनों बच्चे उसके संसार थे।
वह जो बदल गया : स्त्री का मौन और पुरुष की थकान
मीरा अब कम बोलती। उसकी आँखों में वह ममता नहीं रही जो पहले अनिरुद्ध के चेहरे पर मुस्कान बिखेर देती थी। वह नौकरी करने लगी थी — और धीरे-धीरे, वह नौकरी ही उसका दूसरा संसार बन गई। कभी अनिरुद्ध उसे छूने की कोशिश करता तो वह अनकहे शब्दों से दूर हट जाती।
“थक जाती हूँ अब…” — बस यही उसका एक उत्तर होता। धीरे-धीरे उसे एहसास हुआ कि मीरा अब किसी और की बातों में मुस्कराती थी।
डायरी का पन्ना: “मैंने किसी को दोष नहीं दिया”
“प्रेम उतना ही टिकता है जितनी देर हम उसे निभा पाते हैं।
मैंने कभी मीरा को रोका नहीं, क्योंकि मैं उसे खोना नहीं चाहता था।
पर शायद मैंने उसे इसीलिए खो दिया कि उसे बाँधने की कोशिश ही नहीं की।”
समाज का आइना : जब लेखक की गरीबी अपराध बन गई
लोग कहते — “इतना लिखता है, नाम भी है, तो फिर घर में तंगी क्यों?”
अनिरुद्ध बस मुस्करा देता। उसे पता था — लेखन ने उसे पहचान दी, पर पेट नहीं भरा।
बीमार शरीर, जागता मन
अब अनिरुद्ध अस्थमा और शूगर दोनों से जूझता था। वह जानता था — अब उनके बीच संवाद खत्म हो चुका था — बस ज़िम्मेदारियाँ थीं।
कभी बेटा पूछता — “पापा, आप अब क्यों नहीं लिखते?”
वह मुस्कराता — “अब जो जी रहा हूँ, वही सबसे लंबी कहानी है बेटा।”
सृजन का अर्थ: जब शब्दों ने साथ छोड़ा
धीरे-धीरे उसका लेखन भी बदल गया। अब उसमें प्रेम नहीं, बस शून्यता थी।
वह लिखता था, पर जैसे लिखना एक बोझ बन गया था। उसके कमरे में हवा में सन्नाटा था।
“मैं अब खुद अपनी कहानी का नायक नहीं रहा, बस एक प्रसंग हूँ —
जो किसी दूसरे लेखक की रचना में कहीं खो जाएगा।”
एकांत की वह रात
एक रात, अस्पताल से लौटकर वह कमरे में बैठा रहा।
मीरा ऑफिस की पार्टी में थी।
उसने आखिरी बार डायरी खोली और लिखा —
“सृजन अब सन्नाटे में बदल गया है।
शब्द अब मुझसे दूर भागते हैं।
शायद अब वही समय है, जब मैं खुद अपने भीतर लौट जाऊँ।”
मीरा का प्रायश्चित (बहुत देर से)
सुबह जब मीरा लौटी, अनिरुद्ध कुर्सी पर झुका पड़ा था।
चेहरे पर शांति थी। उसकी डायरी खुली थी — पन्नों पर केवल तीन शब्द थे:
“मीरा, मैंने माफ़ किया।”
जब सृजन सन्नाटे में बदल जाता है
आज अनिरुद्ध नहीं है, पर उसके शब्द हैं। किताबों में, ब्लॉगों में, स्मृतियों में।
लोग कहते हैं — वह गरीब था, अकेला था, असफल था।
पर शायद वे नहीं जानते कि उसने जीवन को लिखा नहीं, भोगा था।
और यही उसका सबसे बड़ा सृजन था —
वह सन्नाटा, जो आज भी उसके लिखे शब्दों के बीच बोलता है।
“मैंने दुनिया से कुछ नहीं माँगा,
बस चाहा कि कोई मेरे भीतर के शून्य को पढ़ सके।
शायद यही मेरी सबसे अधूरी रचना है।”
यह कथा सिर्फ एक व्यक्ति की नहीं…
यह उन तमाम रचनाकारों की कहानी है जो अपनी संवेदनाओं के भार से खुद टूटते जाते हैं।
समाज उन्हें ‘महान लेखक’ कहता है,
पर घर की चारदीवारी के भीतर उनका सन्नाटा कोई नहीं सुनता।
वे लिखते हैं क्योंकि कहना असंभव होता है,
और जब कहना संभव नहीं रहता — तब शब्द भी उनसे विदा ले लेते हैं।
पाठकों के सवाल-जवाब