
पंडित छन्नू लाल मिश्र : बनारस की मिट्टी का अमर स्वर
भारत की सांस्कृतिक राजधानी कही जाने वाली काशी (वाराणसी) ने कई संगीत के साधक और रत्न दिए हैं। उन्हीं में एक हैं पद्म विभूषण पंडित छन्नू लाल मिश्र, जिनका नाम सुनते ही बनारसी ठुमरी, दादरा और ख्याल की सुगंध कानों में उतर जाती है। वे सिर्फ एक गायक नहीं, बल्कि भारतीय शास्त्रीय संगीत की उस धारा के संवाहक हैं जो भाव और भक्ति दोनों को एक साथ साधती है।
लेकिन उनके जीवन में ऐसी कई बातें हैं जो बहुत कम लोगों को पता हैं — वे बातें जो उनके व्यक्तित्व की गहराई और बनारस घराने की आत्मा दोनों को उजागर करती हैं।
बचपन में ‘छोटू पंडित’ कहकर पुकारे जाते थे
पंडित छन्नूलाल मिश्र का जन्म 3 अगस्त 1936 को उत्तर प्रदेश के अज़मगढ़ ज़िले के हरिहरपुर गाँव में हुआ था। संगीत उन्हीं के घर में बचपन से ही मौजूद था — उनके पिता Badri Prasad Mishra और अन्य घर में संगीत का माहौल। उन्होंने बाद में Kirana gharana के उस्ताद Ustad Abdul Ghani Khan से प्रशिक्षण प्राप्त किया।
वह बनारस (वाराणसी) का रहने वाला घराना और भाषा–परंपरा-खानदान से जुड़े रहे, लेकिन उनके संगीत में सिर्फ घराने की बंदिशें नहीं थीं — उन्होंने खुद की पहुँच, खुद की संवेदनाएँ और वक्त की ज़रूरतों को भी शामिल किया। उनकी संगीत यात्रा छ: दशक से भी अधिक रही, जिसमें उन्होंने खयाल, ठुमरी, भजन, दादरा, कजरी, चैती आदि शैलियों में महारत हासिल की।
गुरु की डांट से मिली सुर की दीक्षा
कम ही लोग जानते हैं कि पंडित जी के गुरु पंडित बक्शू महाराज बेहद अनुशासित शिक्षक थे। कहा जाता है कि एक बार अभ्यास के दौरान जब उन्होंने एक “सरगम” गलत गाया, तो गुरु ने घंटों उन्हें खड़े रहने की सजा दी।
उस घटना के बाद छन्नू लाल जी ने कहा था
“संगीत में गलती करना भगवान के नाम में गलती करने जैसा है।”
यह कथन आज भी बनारस घराने में “गुरु-वचन” के रूप में दोहराया जाता है।
गंगा घाट पर रोजाना साधना की परंपरा
पंडित छन्नू लाल मिश्र आज भी, अपनी उम्र के आख़िरी पड़ाव में, सुबह-सुबह अस्सी घाट या दशाश्वमेध घाट पर जाकर रियाज करते थे। उनका मानना था कि गंगा के प्रवाह में वह “नाad” है जो संगीत की आत्मा है।
यह परंपरा उन्होंने अपने गुरुजनों से पाई थी और उन्होंने इसे कभी छोड़ा नहीं — चाहे बनारस में कोहरा हो या माघ का कंपकंपाता सवेरा।
फिल्मों से दूरी, लेकिन शास्त्रीय संगीत के प्रचारक
जहाँ आजकल शास्त्रीय गायक फिल्मों की ओर रुख करते हैं, वहीं पंडित छन्नू लाल मिश्र ने फिल्मों में गाने से हमेशा परहेज किया।
हालाँकि, निर्देशक संजय लीला भंसाली ने जब उनसे “बाजीराव मस्तानी” के लिए गवाने की इच्छा जताई, तो उन्होंने स्पष्ट कहा —
“मेरा स्वर किसी किरदार का नहीं, भगवान का भक्त है।”
फिर भी, भंसाली ने उनके ठुमरी अंदाज़ से प्रेरित होकर “मोहे रंग दो लाल” जैसी कालजयी रचना बनाई।
संगीत में ‘भाव’ को सर्वोच्च मानने वाले कलाकार
उनका मानना था कि तकनीक से बढ़कर भाव होता है।
वे कहा करते थे —
“अगर श्रोता की आँखों में आँसू नहीं लाए तो सुर अधूरे हैं।”
इस भावप्रधानता ने उन्हें ठुमरी और दादरा के क्षेत्र में अनूठा बनाया।
उनकी प्रस्तुतियों में शृंगार, करुण और भक्ति — तीनों रस सहज बहते हैं।
प्रधानमंत्री मोदी के प्रिय गायक
बहुत कम लोग जानते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उन्हें व्यक्तिगत रूप से सम्मान देते हैं।
मोदी ने वाराणसी के सांसद रहते हुए हर बड़े आयोजन में पंडित छन्नू लाल मिश्र को सम्मानपूर्वक आमंत्रित किया।
जब 2021 में उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया, तो मोदी ने ट्वीट कर लिखा —
“पंडित छन्नू लाल मिश्र जी हमारे संगीत जगत के सच्चे रत्न हैं। उनका गायन भारत की आत्मा का प्रतिबिंब है।”
यह सम्मान न केवल एक कलाकार का, बल्कि बनारस की उस आत्मा का भी था जो हर स्वर में बसती है।
शिष्य परंपरा : एक परिवार जो संगीत में ही सांस लेता है
पंडित जी के परिवार में संगीत विरासत बन चुका है।
उनकी पुत्री और पोती दोनों शास्त्रीय संगीत की प्रशिक्षक हैं।
उनका कहना है —
“हमारे घर में खाना बाद में, रियाज पहले होता है।”
इस अनुशासन ने घर को एक ‘गुरुकुल’ बना दिया है, जहाँ हर स्वर में बनारस की मिठास घुली होती है।
ठुमरी को नया जीवन देने वाले प्रयोगकर्ता
ठुमरी को कभी “हल्का” या “मनोरंजन प्रधान” संगीत कहा जाता था। लेकिन छन्नू लाल मिश्र ने इसे उस ऊँचाई पर पहुँचाया जहाँ यह भक्ति और भावनात्मक गहराई का प्रतीक बन गया।
उन्होंने ठुमरी में “ब्रजभाषा”, “अवधी” और “काशी बोली” के गीतों को जोड़ा, जिससे यह लोक और शास्त्र का संगम बन गया।
उनका मशहूर ठुमरी —
“कौन गली गयो श्याम”
आज भी संगीत प्रेमियों के दिल में गूंजती है।
बनारसी बोली और हास्यबोध में निपुण
छन्नू लाल मिश्र की बातचीत में बनारस की ठसक और विनोद का रस झलकता है।
वे कहा करते —
> “संगीत वो चीज़ है जो तब भी चलती है जब सब बंद हो जाए।”
उनका मंचीय हास्य, उनका सहजपन और उनके शब्दों की मिठास ने उन्हें सिर्फ एक गायक नहीं, बल्कि लोकप्रिय व्यक्तित्व बना दिया।
कई संगीत समारोहों में वे गीतों के बीच बनारसी किस्से सुनाकर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देते थे।
अंतिम सुरों तक समर्पण की मिसाल
90 वर्ष की उम्र के पार पहुँचने के बाद भी उनका रियाज कभी नहीं रुका।
वे कहते —
> “जब तक सांस है, सुर चलता रहेगा।”
उनके लिए संगीत कोई पेशा नहीं, बल्कि भक्ति की साधना था।
बनारस में जब भी कोई संगीत समारोह होता है, पंडित जी का नाम श्रद्धा से लिया जाता है।
🌿 बनारस घराना : जहाँ स्वर ही संस्कृति है
पंडित छन्नू लाल मिश्र बनारस घराने के जीवंत स्तंभ हैं — वह घराना जो ठुमरी, दादरा, चैती और कजरी के लिए प्रसिद्ध है।
उन्होंने हमेशा कहा कि बनारस घराने की खासियत “लोक की लय और शास्त्र की गहराई” है।
उनके गायन में यही मिश्रण दिखता है —
कभी कृष्ण की रासलीला का उल्लास, तो कभी गंगा आरती की गूंज।
🌼 पुरस्कार और सम्मान
पद्म विभूषण (2021)
पद्म भूषण (2010)
संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार (2006)
उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान
भारतरत्न भीमसेन जोशी स्मृति पुरस्कार
ये सम्मान उनके संगीत-साधना के प्रति राष्ट्र की स्वीकृति हैं।
🌸 छन्नू लाल मिश्र की विरासत
पंडित जी की सबसे बड़ी विरासत उनके स्वर नहीं, बल्कि उनका दर्शन है —
कि संगीत आत्मा की भाषा है, जिसे समझने के लिए सिर्फ कान नहीं, दिल चाहिए।
वे मानते थे कि जब तक भारत में गंगा बहेगी, तब तक बनारस घराने का संगीत भी बहेगा।
पंडित छन्नूलाल मिश्र का निधन 2 अक्टूबर 2025 को मिर्जापुर, उत्तर प्रदेश में हुआ। वे 89 वर्ष के थे और लंबे समय से बीमार चल रहे थे। उनका निधन सुबह लगभग 4:15 बजे हुआ, जब वे अपनी बेटी नम्रता मिश्रा के घर पर थे ।

पंडित जी की मृत्यु का कारण उम्र संबंधी बीमारियाँ बताई गई हैं । उन्होंने अपनी गायकी से भारतीय शास्त्रीय संगीत को समृद्ध किया और बनारस घराने की शैलियों—ठुमरी, चैती, दादरा—को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया ।
उनकी अंतिम यात्रा और संस्कार वाराणसी के मणिकर्णिका घाट पर राज्य सम्मान के साथ संपन्न हुए ।
पंडित जी की गायकी में एक विशेष आध्यात्मिकता और बनारसी ठसक थी, जो श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देती थी ।
✨स्वर का वह दीप जो आज भी जल रहा है
पद्म विभूषण पंडित छन्नू लाल मिश्र की जीवनगाथा सिर्फ एक कलाकार की नहीं, बल्कि उस भारतीय आत्मा की कहानी है जो श्रद्धा, परंपरा और नवाचार से गुँथी हुई है।
उनकी ठुमरी आज भी उसी तरह रुलाती और मुस्कराती है जैसे दशकों पहले।
बनारस के घाटों पर जब गंगा आरती होती है, तो लगता है कि कहीं-न-कहीं पंडित जी का कोई स्वर हवा में तैर रहा है —
जो कह रहा है —
“सुर ही सत्य है, और सत्य ही संगीत।”
