
कमलेश कुमार चौधरी की रिपोर्ट
एक तरफ सरकार हर साल करोड़ों पौधे लगाने के दावे करती है, दूसरी तरफ राजधानी लखनऊ के सरोजनीनगर, काकोरी और दुबग्गा जैसे इलाकों से रातोंरात हरे पेड़ों के गायब होने की खबरें लगातार सामने आती रहती हैं। कहीं बौर से लदे आम के पेड़ सुबह तक ठूंठ में बदल जाते हैं, तो कहीं सड़क किनारे लगे पेड़ ऐसे साफ कर दिए जाते हैं मानो कभी थे ही नहीं।
सवाल यह है कि यह सब बिना किसी मजबूत नेटवर्क और सिस्टम की चुप्पी के कैसे संभव हो सकता है? यह ग्राउंड रिपोर्ट उपलब्ध तथ्यों के साथ यह समझने की कोशिश करती है कि राजधानी में पेड़ों की अवैध कटाई का यह ‘साइलेंट कांड’ कैसे संचालित होता है और इसका पर्यावरण, कानून और समाज पर असर कितना गहरा है।
रात में आरा, सुबह गायब हरियाली: सबसे ज़्यादा निशाने पर परिआर्बन बेल्ट
लखनऊ की सीमा से सटे सरोजनीनगर, काकोरी और दुबग्गा क्षेत्र वह परिआर्बन ज़ोन हैं जहाँ जमीन की कीमतें तेज़ी से बढ़ रही हैं। नई कॉलोनियाँ, गोदाम और व्यावसायिक निर्माण के बीच पेड़ सबसे आसान शिकार बन रहे हैं। स्थानीय लोगों के अनुसार, ज्यादातर कटाई रात में होती है — ट्रक आते हैं, अस्थायी मशीन लगती है, कुछ घंटों में पूरा इलाका साफ।
सुबह बचते हैं सिर्फ ठूंठ, और यह सवाल — किसकी मिलीभगत है?
सरोजनीनगर: विवादित ज़मीनों पर पेड़ों का ‘कॉलैटरल डैमेज’
कानपुर रोड से जुड़े इलाकों में कई जगह सड़क किनारे पेड़ों की संख्या वर्षों में तेजी से घटी है। जहां भूमि विवाद या कब्जे की स्थिति हो, वहां पेड़ सबसे पहले काटे जाते हैं ताकि भविष्य में किसी सरकारी/न्यायिक रोक का खतरा न रहे।
स्थानीय लोग बताते हैं — “शिकायत ऊपर तक जाती है, लेकिन कार्रवाई कम दिखती है।”
काकोरी में बौर लदे 20 के करीब आम के पेड़ कटे — गांव में गुस्सा आज भी है
हरदोई रोड के पास बने बागों पर रियल एस्टेट की नजर गहराती जा रही है। रातोंरात बौर लदे 15–20 पेड़ काट दिए जाने की घटना ग्रामीण आज भी याद करते हैं। ग्रामीणों का आरोप है कि रात में पुलिस और वन विभाग को फोन किया गया, पर दोनों ने जिम्मेदारी एक-दूसरे पर डाल दी।
सुबह पूरा बाग ठूंठों में बदल चुका था — मानो हरियाली की पूरी किताब से एक पन्ना फाड़ दिया गया हो।
दुबग्गा रेंज: 17 पेड़, फिर 6 पेड़ — कार्रवाई का नाम नहीं
दुबग्गा रेंज में कुछ ही दिनों के अंतर में 17 पेड़ और फिर 6 पेड़ काटे जाने की खबरें सामने आईं। स्थानीय लोगों का आरोप है कि ठूंठ हफ्तों तक वहीं पड़े रहे, मानो संदेश दिया जा रहा हो कि “कुछ नहीं होगा।”
यही कारण है कि यहां कई लोग खुलकर कहते हैं — “यह अनदेखी नहीं, मौन मंजूरी लगती है।”
आंकड़े खतरे की घंटी बजा रहे हैं — हरियाली घट रही, अपराध बढ़ रहे
पर्यावरणीय अध्ययन बताते हैं कि पिछले दो दशकों में लखनऊ में पेड़ आवरण में लगभग 20% की कमी दर्ज हुई है। इसी दौरान पर्यावरण और वन अपराध — विशेषकर अवैध कटान — के मामलों में भी निरंतर वृद्धि दर्ज की गई है।
यानी कानून किताबों में सख्त है, लेकिन जमीनी जोखिम अपराधियों को डराता नहीं।
सरकार के पौधरोपण के दावे — और कटे हुए पेड़ों की हकीकत
सरकार अरबों पौधे लगाए जाने के आंकड़े जारी करती है। लखनऊ मंडल हर वर्ष लाखों पौधों का लक्ष्य पूरा करने की रिपोर्ट भेजता है। लेकिन जमीनी स्तर पर सवाल कायम है:
“इतने पौधे लगाए जा रहे हैं, तो पेड़ क्यों घट रहे हैं?”
पौधरोपण तभी उपयोगी है जब पहले से खड़े परिपक्व पेड़ों की सुरक्षा सुनिश्चित की जाए।

अवैध कटान की इकॉनोमिक्स — लकड़ी + जमीन दोनों का फायदा
पेड़ काटकर लाभ केवल लकड़ी में नहीं — जमीन साफ होने पर उसका बाजार मूल्य कई गुना बढ़ जाता है। इसलिए पेड़ हटाओ → प्लॉट/प्रोजेक्ट बेचो → दोहरा मुनाफा।
और पकड़ जाने पर मामूली जुर्माना या “सेटलमेंट” संभव हो — तो यह अपराध कैल्कुलेटेड रिस्क बन जाता है।
लोग शिकायत क्यों छोड़ने लगे हैं?
जब शुरुआती शिकायतों पर कोई ठोस कार्रवाई न हो, जब कटे पेड़ों की रिपोर्ट वर्षों तक फाइलों में रहे, जब ठूंठ वहीं पड़े रहें — तो भरोसा टूटना स्वाभाविक है।
कई गांवों में लोग अब कहते हैं — “पेड़ भी हमारे, नुकसान भी हमारा, और केस भी हम ही लड़ें… तो कौन पंगे में पड़े?”
समाधान — पेड़ लगाने से पहले पेड़ बचाने की नीति जरूरी
✔ परिआर्बन ज़ोन में स्वतंत्र ट्री-ऑडिट
✔ सिर्फ पौधों नहीं, खड़े परिपक्व पेड़ों का भी जियो-टैग
✔ लखनऊ में भी करोड़ों की क्षतिपूर्ति वाली नजीर कार्रवाई
✔ गांव-स्तर के ग्रीन वॉचर और समयबद्ध कार्रवाई ट्रैकिंग
✔ तिमाही “ग्रीन रिपोर्ट कार्ड” — कितने पेड़ कटे / बचे / लगाए गए
निष्कर्ष: ठूंठ सिर्फ लकड़ी का अवशेष नहीं — सिस्टम की विफलता का प्रतीक हैं
लखनऊ की सीमा पर खड़े ठूंठ हमें याद दिलाते हैं कि पेड़ केवल लकड़ी नहीं — शहर की सांस, छांव और भविष्य हैं। सरोजनीनगर की टूटी हरियाली, काकोरी के कटे बाग और दुबग्गा के खाली पड़े मैदान केवल पर्यावरणीय नुकसान नहीं, शासन और समाज दोनों के लिए चेतावनी हैं।
अगर पेड़ नहीं बचेंगे — तो शहर सिर्फ कंक्रीट की यादगार बनकर रह जाएगा।
सबसे बड़ा और अंतिम सवाल — अगला पेड़ कटने से पहले कौन बोलेगा, और सुनेगा कौन?