संजय सिंह राणा की रिपोर्ट
चित्रकूट और बांदा, बुंदेलखंड की धरती के दो ऐसे जिले जो आमतौर पर सूखे, गरीबी और पलायन की कहानियों के लिए जाने जाते हैं। लेकिन इस बार प्रकृति ने पलटवार किया है—बारिश और नदियों के उफान ने इन जिलों को बाढ़ की चपेट में ला खड़ा किया है। यमुना, मंदाकिनी और केन नदियां इस समय अपने पूरे वेग पर हैं। बाढ़ का पानी खेतों, घरों, स्कूलों, मंदिरों और दुकानों तक जा पहुंचा है।
जहां कल तक बच्चे खेलते थे, आज नावें चल रही हैं
बांदा के कई गांवों में हालत यह है कि लोग पहली मंजिल पर शरण लिए हुए हैं। चित्रकूट के रामघाट इलाके की विडंबना यह है कि जहाँ श्रद्धालु पुण्यस्नान करने आया करते थे, आज वहीं नावें चल रही हैं और लोग जान बचाकर नावों के सहारे किसी ऊंचे स्थान तक पहुंचने की जद्दोजहद कर रहे हैं।
तत्पश्चात, सवाल यह है कि प्रशासन कितना तैयार था?
हालांकि, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने “टीम-11” का गठन कर दिया है और NDRF व SDRF की टीमें राहत कार्य में जुटी हैं, लेकिन जमीनी सच्चाई यह है कि ग्रामीण क्षेत्रों में सरकारी मदद अभी भी धीमी है। बाढ़ की भयावहता ने यह उजागर कर दिया कि हमारी तैयारी ‘आपदा प्रबंधन’ से ज्यादा ‘आपदा प्रतिक्रिया’ तक ही सीमित है।
प्रभावितों की आंखों में राहत की उम्मीद नहीं, व्यवस्था पर निराशा है
रामनगर गांव की फूलवती देवी बताती हैं, “तीन दिन से खाना नहीं मिला। हम तो खुद अपने घर के ऊपर चढ़कर बैठे हैं। नीचे सिर्फ पानी ही पानी है।”
एक अन्य ग्रामीण रामबाबू ने कहा, “सरकारी राहत की नावें आती हैं, फोटो खींचती हैं, और चली जाती हैं। लेकिन राशन और दवा कुछ नहीं मिलता।”
इसके अलावा, बाढ़ से न सिर्फ जनजीवन बाधित हुआ है, बल्कि आजीविका भी पूरी तरह बर्बाद हो गई है। खेतों में खड़ी फसलें डूब गई हैं। जो लोग पहले ही कर्ज में डूबे थे, अब पानी में भी डूब गए हैं।
प्रशासनिक सक्रियता बनाम लोक असंतोष
प्रशासन का दावा है कि करीब 25 हजार लोगों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचा दिया गया है। राहत शिविरों में भोजन, दवा और साफ पानी की व्यवस्था की जा रही है। लेकिन स्थानीय पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि अधिकांश राहत शिविरों में न तो पर्याप्त खाना है और न ही शौचालय या मेडिकल सुविधा।
यहां एक बड़ा ट्रांज़िशनल सवाल उठता है—क्या आपदा आने के बाद की व्यवस्था ही पर्याप्त है, या फिर हमें आपदा से पहले की तैयारी को सशक्त बनाना होगा?
बुंदेलखंड का संकट और भी गहरा है
चित्रकूट और बांदा के लोग हर साल किसी न किसी प्राकृतिक विपदा का सामना करते हैं—कभी सूखा, कभी गर्मी, और अब बाढ़। यह चक्र दर्शाता है कि जलवायु परिवर्तन और नीति-निर्माण में असंतुलन ने इस क्षेत्र को सबसे कमजोर बना दिया है।
यह भी ध्यान देने योग्य है कि इन जिलों की बड़ी आबादी गरीब, भूमिहीन और अनुसूचित जातियों से आती है। इनकी आवाज़ आमतौर पर नीति-निर्माताओं के गलियारों तक नहीं पहुंच पाती। इस बार भी ऐसा ही होता दिख रहा है।
राजनीतिक बयान और जमीनी हकीकत
नेताओं के बयानों की बाढ़ भी इस समय देखने को मिल रही है। कोई इसे “केंद्र की लापरवाही” कह रहा है, तो कोई “प्राकृतिक आपदा” बताकर हाथ झाड़ ले रहा है। विपक्ष का आरोप है कि योगी सरकार सिर्फ नाम की तैयारी करती है, ज़मीन पर कुछ नहीं दिखता।
हालांकि सत्तापक्ष इसे विपक्ष की ‘राजनीतिक रोटियां सेकने’ की कोशिश बता रहा है।
मगर सच यह है कि जनता बाढ़ में फंसी है, और उसे अब भाषण नहीं, राहत चाहिए।
बाढ़ के बाद क्या बचेगा?
यह सिर्फ एक प्राकृतिक आपदा नहीं, एक सामाजिक और प्रशासनिक संकट भी है। चित्रकूट और बांदा के बाढ़ग्रस्त इलाकों में पीड़ा, असहायता और असंतोष की लहर साफ दिखाई देती है। इस रिपोर्ट के माध्यम से हम यही सवाल उठा रहे हैं—
क्या सिर्फ नावें और राहत किट ही पर्याप्त हैं? या फिर एक नई आपदा नीति की आवश्यकता है जो संवेदनशील हो, योजनाबद्ध हो, और वंचितों के पक्ष में हो?