चुन्नीलाल प्रधान की रिपोर्ट
लखनऊ। उत्तर प्रदेश की बिजली व्यवस्था एक बार फिर विवाद के केंद्र में है। जहां एक ओर सरकार बिजली कंपनियों के निजीकरण की दिशा में तेज़ी से कदम बढ़ा रही है, वहीं दूसरी ओर खुद उसी सरकार के विभागों पर बिजली कंपनियों का 15,569 करोड़ रुपये का बकाया है। ऐसे में बड़ा सवाल उठता है—क्या निजीकरण ही वित्तीय संकट से उबरने का एकमात्र रास्ता है?
कंपनियों पर कुल बकाया 1.15 लाख करोड़, सरकारी हिस्सेदारी भी बड़ी
ध्यान देने वाली बात यह है कि राज्य की बिजली कंपनियों पर कुल 1.15 लाख करोड़ रुपये का बकाया है, जिसमें अकेले सरकारी विभागों का हिस्सा 15,569 करोड़ रुपये है। यह आंकड़ा 31 मार्च 2025 तक का है। इसमें सबसे अधिक बकाया उन दो वितरण निगमों पर है जिन्हें निजी हाथों में सौंपने की योजना है—पूर्वांचल और दक्षिणांचल विद्युत वितरण निगम, जिन पर करीब 8,591 करोड़ रुपये का सरकारी बकाया है।
“सरकार खुद भुगतान करे तो निजीकरण की ज़रूरत नहीं”
विद्युत उपभोक्ता परिषद के अध्यक्ष अवधेश कुमार वर्मा का कहना है कि अगर सरकार खुद का बकाया जमा कर दे, तो कंपनियों की हालत सुधर सकती है और निजीकरण की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। उनका यह कथन इस पूरे मामले के केंद्र में है—क्योंकि जब खुद सरकार ही भुगतान नहीं कर रही, तो निजी कंपनियों से किस नैतिक आधार पर बेहतर संचालन की उम्मीद की जा सकती है?
निजीकरण: सुधार या सुनियोजित लूट?
इसी संदर्भ में विद्युत कर्मचारी संयुक्त संघर्ष समिति ने निजीकरण के प्रयासों को सीधे तौर पर ‘लूट का दस्तावेज’ करार दिया है। समिति के अनुसार, निजीकरण के प्रस्ताव में कंपनियों की संपत्तियों का मूल्य कम करके दिखाया गया है, जिससे निजी घरानों को सस्ती दर पर लाभ पहुंचाया जा सके।
मुख्य सचिव को पत्र और केंद्र की नई गाइडलाइन
समिति ने इस मुद्दे पर राज्य के मुख्य सचिव को पत्र लिखते हुए निजीकरण प्रक्रिया को तत्काल रद्द करने की मांग की है। साथ ही उन्होंने यह भी बताया कि जिस ड्राफ्ट स्टैंडर्ड बिडिंग डॉक्यूमेंट 2020 का चंडीगढ़ में इस्तेमाल किया गया था, उसे केंद्र सरकार ने अप्रैल 2025 में संशोधित किया है। ऐसे में सवाल उठता है कि उत्तर प्रदेश में अभी भी पुराने ड्राफ्ट के आधार पर क्यों कार्रवाई हो रही है?
बिजली दरों में प्रस्तावित बढ़ोतरी: आम जनता पर दोहरी मार
जैसे इतना ही काफी नहीं था, उत्तर प्रदेश के घरेलू उपभोक्ताओं को जल्द ही बिजली दरों में भारी वृद्धि का सामना करना पड़ सकता है। बिजली कंपनियों ने वित्तीय वर्ष 2025–26 के लिए 45% तक की वृद्धि की याचिका उत्तर प्रदेश विद्युत नियामक आयोग में दायर की है।
जनसुनवाई पूरी, अब दरें बढ़ने का खतरा
इस याचिका पर जनसुनवाई भी पूरी हो चुकी है और अब आयोग किसी भी वक्त अपना फैसला सुना सकता है। परन्तु इससे पहले भी उत्तर प्रदेश देश के सबसे महंगे बिजली दरों वाले राज्यों में शुमार रहा है। विशेषकर अपने नौ पड़ोसी राज्यों की तुलना में यहां बिजली सबसे महंगी है।
तो क्या आम जनता ही हर बार बलि का बकरा बनेगी?
जब सरकार खुद अपने विभागों की बिजली बिल नहीं चुका रही और निजीकरण का रास्ता ‘सुधार’ की जगह ‘सौदेबाज़ी’ में तब्दील हो रहा है, तो जनता के पास विकल्प क्या बचता है? निजी कंपनियों के आने के बाद बिजली सेवा की गुणवत्ता बढ़े या घटे—यह एक अलग बहस का विषय है। लेकिन यह तो साफ है कि अगर सरकारी बकाया वसूला जाए और पारदर्शिता से कंपनियों का संचालन हो, तो शायद निजीकरण की आवश्यकता ही न पड़े।
सुधार की ज़रूरत है, पर दिशा पर सवाल है
निस्संदेह, उत्तर प्रदेश की बिजली व्यवस्था सुधार की मांग करती है। लेकिन सुधार का मतलब केवल निजी हाथों में सौंपना नहीं हो सकता। जब तक खुद सरकार जवाबदेह नहीं बनती और पारदर्शी आर्थिक संरचना लागू नहीं होती, तब तक कोई भी मॉडल—चाहे सार्वजनिक हो या निजी—जनहित में सफल नहीं हो सकता।