गज़ब की भाषा बुंदेली — अपनापन भी, साहस भी

एक सफ़र जो रास्तों से ज़्यादा दिलों के भीतर उतर गया





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अनिल अनूप

आज से पांच छह साल पहले की बात है, किसी कार्यक्रम में शामिल होने के लिए उत्तर प्रदेश के गाँव में जाने का पहला अवसर प्राप्त हुआ था। लुधियाना से लखनऊ तक रेलगाड़ी, और वहाँ से बाँदा–अतर्रा होते हुए पचोखर तक की कार यात्रा। मंज़िल चाहे कार्यक्रम का मंच था, लेकिन रास्ते में जो कुछ मिला, वह किसी किताब, किसी कक्षा या किसी भाषण में नहीं मिल सकता था — वह था बुंदेलखंड की मिट्टी से उठता हुआ बुंदेली भाषा का जीवंत अनुभव।

रेलगाड़ी से उतरकर जब कार ने लखनऊ की भागती–दौड़ती सड़कों को छोड़कर ग्रामीण रास्तों की ओर रुख किया, तो दृश्य बदलने लगे। ऊँची-ऊँची इमारतों की जगह खेतों की हरियाली ने ले ली, हॉर्न की आवाज़ों की जगह ट्रैक्टर की घरघराहट और पक्षियों की चहचहाहट सुनाई देने लगी। हवा में हल्की ठंडक थी, पर मिट्टी की खुशबू गर्माहट दे रही थी।

यात्रा शुरू तो हो चुकी थी, लेकिन असली सफ़र तब शुरू हुआ जब भाषा ने अपना रंग दिखाना शुरू किया।

अतर्रा का पहला साक्षात्कार — “तौ सीधै चलो भइया…”

अतर्रा थाने के समीप कार रुकी। ड्राइवर ने सड़क के किनारे गाड़ी लगाई और हम किसी राहगीर की प्रतीक्षा करने लगे, जो आगे का रास्ता समझा दे। कुछ ही देर में एक आदमी दिखा — कंधे पर गमछा, पैरों में घिसी चप्पलें, चेहरे पर सहज सादगी और आँखों में आत्मविश्वास।

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मैंने आगे बढ़कर पूछा, “भाई साहब, हमें पचोखर जाना है?”

वह ज़रा भी झिझके बिना बोला, “तौ सीधै चलो भइया, पचोखर पड़े अगाड़ी, मड़ैया पारतै मिल जइयो।”

शब्द मैंने पहली बार इस लय में सुने थे। आधा समझा, आधा नहीं समझ पाया — पर भीतर कहीं एक हल्की-सी हँसी फूट पड़ी। वह हँसी मज़ाक की नहीं, आश्चर्य और आनंद की थी। उस अनजानी भाषा में जो अपनापन और आत्मीयता थी, उसने मुझे पहला एहसास दिया कि मैं किसी और प्रदेश में नहीं, किसी और ‘भाषिक संसार’ में प्रवेश कर चुका हूँ।

पचोखर चौक — “तुम चलत रहियो, लोग बता दीहें”

अतर्रा से आगे बढ़ते हुए कार पचोखर चौक पहुँची। चौक पर हलचल थी — चाय की दुकान, पान की गुमटी, छोटी किराने की दुकानें और कुछ लोग जो यूँ ही खड़े होकर बतकही कर रहे थे।

ड्राइवर थोड़ा उलझन में पड़ा — “यहीं से अंदर जाएँ या आगे से?”

मैंने एक दुकानदार से पूछा, “भाई साहब, पचोखर गाँव में फलां साहब का घर किस तरफ पड़ेगा?”

उसने बिना सोचे तुरंत उत्तर दिया —

“अरे भइया, तोहरे सामने जौ सड़की दिखत है न, उहाँ दाईं बटिया लेबो, पचोखर भीतरै है। तुम चलत रहियो, लोग बता दीहें।”

यहाँ भाषा सड़क के बोर्ड की तरह नहीं, चलते–फिरते इंसानों के रूप में मार्गदर्शन कर रही थी।

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पचोखर से चित्रकूट — होटल के कमरे में भी “हम जल्दी लाइ देबै”

चित्रकूट में एक छोटे से होटल में रात गुज़री। वेटर उम्र में युवा था लेकिन व्यवहार में परिपक्व। वह साफ-सुथरी, किंचित टूटी–फूटी हिंदी में पूछता, और कुछ ही मिनटों में बुंदेली में ढल जाता —

“भइया, कछू खायबो तौ बोल दियो, हम जल्दी लाइ देबै।”
“पानी कम पड़ै तौ आवाज़ देइओ।”
“थक गय रहो का भइया, चाय बनाइ देत हौं?”

यहाँ भाषा केवल बोलचाल नहीं, ख्याल रखने की शैली थी।

अगली सुबह — कालूपुर पाही की ओर और फिर वही बुंदेली

सुबह कालूपुर पाही के रास्ते संदेह हुआ कि कहीं गलत मोड़ न ले लिया। राहगीर ने पुकार सुनकर कहा —

“हवे, हवे! सीधै चलो, पाही नजिकै है, पुल पारतै मिल जइयो। चिंता मत करो, पहुँची जइबो।”

बुंदेलखंड में “रास्ते” और “रिश्ते” दोनों इसी भाषा में खुलते हैं।

बुंदेली के बहुरंगी स्वर — बाँदा, नरैनी, पचोखर और अतर्रा की बोली

बाँदा की बुंदेली — दिल से निकलती बोली
नरैनी की बुंदेली — मुस्कुराहट से लबरेज़
पचोखर की बुंदेली — मिट्टी की गंध वाली
अतर्रा की बुंदेली — जोशीली पर अंदर से नरम

चारों अलग–अलग, लेकिन आत्मा एक ही।

बुंदेली लोकगीत — मिट्टी, मन और मनुष्यता के शाश्वत स्वर

आल्हा — शौर्य और त्याग
फाग — प्रेम और अनुराग
कजरी/महारास — विरह और धैर्य
करमा और खेत गीत — श्रम और आशा
विवाह गीत — उत्सव और विदाई का विलय

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यह गीत सिर्फ गाए नहीं जाते, जिए जाते हैं।

तो इतनी समृद्ध भाषा को राष्ट्रीय पहचान क्यों नहीं?

क्योंकि इसे ग़लती से “गाँव की बोली” समझा गया, सम्मानित शैक्षणिक स्थान नहीं मिला, शोध संस्थानों की कमी रही और मंचों पर हिंदी–अंग्रेज़ी की प्रतिष्ठा को प्राथमिकता दी गई।

फिर भी — बुंदेली मिटने वाली नहीं, उभर रही है

मोबाइल, इंटरनेट, सोशल मीडिया और स्टैंड–अप/लोककलाओं ने एक नया मार्ग खोला है। युवा गर्व से कह रहे हैं —
“हम बुंदेली बोलत हैं — हमका कउन शर्म?”

अंत में — बुंदेली केवल भाषा नहीं, दिलों की धड़कन है

लुधियाना से चलकर, लखनऊ, बाँदा, अतर्रा, पचोखर, चित्रकूट और कालूपुर पाही तक पहुँचना भले एक भौगोलिक यात्रा थी, लेकिन असल में यह बुंदेली भाषा के संसार की यात्रा थी।

कभी राहगीर ने कहा — “सीधै चलो, पचोखर भीतरै है।”
कभी होटल वाले ने मुस्कुराकर कहा — “कछू चाही तौ बोल दियो, जल्दी लाइ देबै।”
कभी किसी ने हौसला बढ़ाया — “डेरौ मत, सब ठिकाने हो जइहै।”

गज़ब की भाषा है बुंदेली — सुनो तो मन हरियाय जाए, बोलो तो मन भर जाए, और जी लो तो जीवन बदल जाए।

(इसी एहसास ने मेरे लेखक मन को कहा, भले ही तुम बुंदेलखंड के वासी नहीं हो लेकिन भाषा के अनुभव किए गए जादू को व्यक्त कर दो। प्रयास का यह उदाहरण पेश है — अनिल अनूप ☝)


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