Wednesday, August 6, 2025
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“दिशोम गुरु की विदाई: शिबू सोरेन की मृत्यु नहीं, आदिवासी चेतना के एक युग का अंत”

{जो पुलिस की गोलियों से नहीं डरा, जो सत्ता के आगे झुका नहीं, जिसने जंगलों से संसद तक आदिवासी अधिकारों की हुंकार भरी—वह शिबू सोरेन अब नहीं रहे। लेकिन सवाल यह है कि क्या झारखंड उनकी विरासत को संभाल पाएगा, या यह भी सत्ता के गलियारों में खो जाएगा?}

अनिल अनूप

झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री और ‘दिशोम गुरु’ के नाम से विख्यात शिबू सोरेन अब हमारे बीच नहीं रहे। 81 वर्षीय शिबू सोरेन बीते डेढ़ महीने से दिल्ली के सर गंगाराम अस्पताल में जीवन-मृत्यु के द्वंद्व से जूझ रहे थे, लेकिन अंततः उन्होंने अंतिम सांस ली। उनके निधन के साथ न केवल झारखंड की राजनीति, बल्कि भारत के जनजातीय चेतना के एक संकल्पशील अध्याय का पटाक्षेप हो गया।

शुरुआती संघर्ष और सामाजिक बुनियाद

शिबू सोरेन का जीवन प्रारंभ से ही असाधारण था। 11 जनवरी 1944 को तत्कालीन बिहार के हजारीबाग जिले (अब रामगढ़) के नेमरा गांव में जन्मे शिबू का बचपन अत्यंत साधारण, किंतु सामाजिक दृष्टि से बेहद संवेदनशील परिवेश में बीता। उनके पिता सोबरन सोरेन गांधीवादी शिक्षक थे, जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लिया था।

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हालांकि, यह सामाजिक चेतना और संघर्षबोध शिबू के जीवन में तब विकराल रूप में प्रकट हुआ जब महज 13 वर्ष की उम्र में उन्हें अपने पिता की हत्या की खबर मिली। उनके पिता सूदखोर महाजनों के विरुद्ध आदिवासियों को संगठित कर रहे थे, जिसकी परिणति उनकी क्रूर हत्या में हुई। यह घटना शिबू की सोच और जीवन की दिशा को पूरी तरह बदल गई।

सामाजिक कार्यकर्ता से क्रांतिकारी नेता बनने तक

वो महज किशोर थे, परंतु उनके भीतर अंगारों की तरह धधकती चेतना ने उन्हें औपचारिक शिक्षा से अधिक समाज सेवा और प्रतिरोध की राह पर खड़ा कर दिया। यह वह समय था जब सूदखोर महाजन ग्रामीणों को 500% तक ब्याज पर कर्ज देकर उनकी जमीनें हड़प लेते थे। आदिवासी किसान अपने ही खेतों में मज़दूर बनकर रह गए थे।

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इन्हीं परिस्थितियों में शिबू सोरेन ने एक साहसिक प्रतिरोध आंदोलन खड़ा किया। उन्होंने ‘धान काटो’ अभियान की शुरुआत की—महाजनों द्वारा हड़पी गई जमीनों पर जबरन फसल कटाई करवाई गई और उसे गांव वालों में बांट दिया गया। यह सिर्फ आर्थिक प्रतिरोध नहीं था, यह सामाजिक पुनरुत्थान का बिगुल था। इसी आंदोलन ने उन्हें ‘दिशोम गुरु’ की उपाधि दिलाई—संथाली में ‘देश का गुरु’।

राजनीतिक आत्मबोध और JMM की स्थापना

इन आंदोलनों से मिली सामाजिक स्वीकृति और जन समर्थन ने शिबू को यह बोध दिया कि सत्ता के गलियारों तक बिना राजनीतिक मंच के नहीं पहुंचा जा सकता। यहीं से झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) के बीज पड़े। 4 फरवरी 1972 को धनबाद में विनोद बिहारी महतो, AK राय और अन्य साथियों के साथ मिलकर शिबू सोरेन ने JMM की स्थापना की।

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JMM न केवल एक पार्टी थी, बल्कि यह एक सामाजिक आंदोलन का राजनीतिक संस्करण था। इसने झारखंड के आदिवासियों, मूलवासियों और शोषित समाज को एक मंच पर लाने का काम किया। इस दौरान शिबू के खिलाफ कई केस दर्ज हुए, वे भूमिगत हो गए, लेकिन आदिवासी जनता की नज़रों में वे एक उद्धारक के रूप में स्थापित हो चुके थे।

प्रशासन से टकराव और समर्थन का द्वंद्व

शिबू सोरेन का प्रशासन से संबंध हमेशा संघर्षमय नहीं रहा। धनबाद के तत्कालीन DC केबी सक्सेना जैसे अधिकारियों ने न केवल शिबू की ईमानदारी को पहचाना, बल्कि उन्हें समर्पण के लिए प्रेरित भी किया। यह एक दुर्लभ उदाहरण था जब प्रशासन ने किसी आंदोलकारी नेता को सम्मानपूर्वक आत्मसमर्पण के लिए आमंत्रित किया। 1975 में शिबू ने इसी विश्वास के साथ सरेंडर किया और जेल गए।

बाद में, बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से भी उनकी संवाद प्रक्रिया शुरू हुई। यह वह समय था जब शिबू समाज और सत्ता के बीच एक सेतु की तरह कार्य कर रहे थे।

झारखंड निर्माण आंदोलन: राजनीतिक परिपक्वता की मिसाल

शिबू सोरेन का सबसे बड़ा ऐतिहासिक योगदान झारखंड राज्य के निर्माण में रहा। जुलाई 2000 में जब संसद का मानसून सत्र चल रहा था, तब उन्होंने झारखंड बिल को उसी सत्र में पारित कराने की मांग करते हुए धमकी दी—अगर राज्य नहीं बना तो झारखंड से कोयला और खनिज सप्लाई रोक दी जाएगी।

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उनकी इस राजनीतिक चतुराई और जन समर्थन ने केंद्र सरकार को झुका दिया और 2 अगस्त 2000 को झारखंड राज्य का निर्माण हुआ। यह उपलब्धि किसी भी राजनेता के लिए जीवन का सर्वोच्च क्षण हो सकता है, और शिबू ने इसे अपने संघर्षों के बल पर प्राप्त किया।

आलोचनाओं और विवादों के घेरे में

हालांकि, शिबू सोरेन का राजनीतिक जीवन विवादों से अछूता नहीं रहा। चिरुडीह नरसंहार कांड, जिसमें उन्हें 29 वर्षों तक कोर्ट का सामना करना पड़ा, ने उनकी छवि को गंभीर चोट पहुंचाई। 2004 में कोयला मंत्री रहते हुए उन्हें फरार घोषित कर दिया गया। यह उस लोकतांत्रिक विडंबना को उजागर करता है जहां सत्ता में बैठे व्यक्ति पर आपराधिक आरोप लग सकते हैं, और न्यायिक प्रक्रिया राजनीतिक रंगों से प्रभावित हो सकती है।

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बहरहाल, 2008 में वे इस मामले में बरी हो गए, लेकिन उस प्रकरण ने उनकी सार्वजनिक छवि पर स्थायी प्रश्नचिन्ह तो छोड़ ही दिया।

मुख्यमंत्री पद की विफलताएं और सीमाएं

शिबू सोरेन तीन बार झारखंड के मुख्यमंत्री बने, लेकिन कुल मिलाकर वे केवल 10 महीने 10 दिन तक ही पद पर रह सके। यह तथ्य न केवल उनकी राजनीतिक रणनीति की सीमाएं दर्शाता है, बल्कि झारखंड की जटिल जातीय-सामाजिक राजनीति और गठबंधन गणित की अस्थिरता को भी रेखांकित करता है।

संघर्षों की विरासत और मौन विदाई

शिबू सोरेन के निधन के साथ एक ऐसा युग समाप्त हुआ है जिसने जनजातीय राजनीति को सामाजिक न्याय की दिशा दी। वे न तो महज एक राजनेता थे और न ही केवल एक जननेता—वे एक आंदोलन थे, जो गांव-गांव, खेत-खलिहान, जंगल और पहाड़ों में गूंजता रहा।

उनकी शैली कठोर हो सकती है, उनकी रणनीतियाँ आदर्श से विचलित भी दिख सकती हैं, लेकिन वे भारत के लोकतंत्र में उन चुनिंदा नेताओं में शामिल रहे जिन्होंने ‘नीचे से ऊपर’ तक की यात्रा की, और एक पूरी सभ्यता को राजनीतिक प्रतिनिधित्व दिलाया।

निष्कर्ष: दिशोम गुरु के जाने के बाद

आज जब शिबू सोरेन हमारे बीच नहीं हैं, तब यह विचार करना जरूरी है कि क्या हम उनकी विरासत को समझ पा रहे हैं? क्या उनके आंदोलन का उद्देश्य—शोषणमुक्त, आत्मनिर्भर और सम्मानजनक आदिवासी जीवन—पूरा हुआ है?

उनके जाने से केवल एक व्यक्ति नहीं, बल्कि एक विचार, एक आंदोलन और एक आदिवासी चेतना की जीवित मूर्ति विलुप्त हो गई है। उनके बेटे हेमंत सोरेन अब राजनीतिक उत्तराधिकारी हैं, लेकिन यह उत्तराधिकार केवल सत्ता का नहीं, बल्कि जिम्मेदारी का भी है—उन मूल्यों की रक्षा का जो ‘दिशोम गुरु’ ने अपने संघर्षों से स्थापित किए।

एक युग का अवसान… और आने वाले युग का प्रश्न यह है: क्या दिशोम गुरु का सपना जीवित रहेगा?

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