संजय सिंह राणा की रिपोर्ट
पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है। यह स्तंभ वह नहीं होता जो हिलते ही गिर जाए या जिसके भीतर दीमक लगी हो। मगर उत्तर प्रदेश की गलियों-मोहल्लों में विचरते हुए जब आप हर नुक्कड़ पर किसी न किसी “सरकारी मान्यता प्राप्त पत्रकार” से टकरा जाएं, तो प्रश्न उठना स्वाभाविक है—क्या यह पत्रकारिता की जीत है या उसकी विकृति?
“पहचान बनाओ, कलम नहीं”
आज के दौर में पत्रकार बनने के लिए पत्रकारिता की डिग्री नहीं, एक तगड़ी पहचान की ज़रूरत है—तगड़ी यानी ब्लॉक प्रमुख का भांजा, विधायक का मौसेरा भाई, या फिर थाना इंचार्ज का नाश्ते का साथी। फिर क्या? एक आवेदन पत्र, कुछ अदृश्य अनुशंसाएँ, और अगले महीने आपकी जेब में एक सरकारी मान्यता कार्ड। वाह रे लोकतंत्र!
जहाँ हर गली में ‘मान्यता प्राप्त’ पत्रकार मिले, वहाँ ख़बरें नहीं, संबंध बिकते हैं
और हाँ, यह कार्ड केवल पहचान पत्र नहीं, यह तो ‘VIP पास’ है। इससे न केवल आप डीएम ऑफिस के AC कक्ष में जा सकते हैं, बल्कि सरकारी जलपान में समोसे के साथ काजू कतली तक का आनंद उठा सकते हैं। पत्रकारिता का इससे सस्ता और स्वादिष्ट रास्ता क्या होगा?
“शब्दों से नहीं, संपर्कों से लिखते हैं खबरें”
अब बात करें पत्रकारिता की असली विधा की—लेखन। तो मान्यता प्राप्त पत्रकारों की बड़ी जमात वह है जिन्हें “शुद्ध” हिंदी से अधिक प्रेम शुद्ध देसी जुगाड़ से है। विराम चिन्हों की जगह व्हाट्सएप के इमोजी, और तथ्यों की जगह “किसी सूत्र ने बताया” वाला ब्रह्मास्त्र हर रिपोर्ट में मौजूद होता है।
जहां संपादन का मतलब होता था भाषा को निखारना, वहाँ अब संपादन का आशय बन गया है “नाम मत डालो डीएम साहब का, ग़लत समझ लेंगे।” रिपोर्ट नहीं छपती, बल्कि निंदा प्रस्ताव से बचने की याचिकाएं छपती हैं।
“कलम के सिपाही या सरकार के सिपाही?”
कुछ दशकों पहले पत्रकार मैदान में उतरता था, तो सत्ता कांपती थी। आज पत्रकार प्रेस कॉन्फ्रेंस में बैठता है, तो ‘सत्ता’ उसे मिठाई खिलाती है और वो सत्ता को सेल्फी दिखाता है।
सरकारी मान्यता का वास्तविक उपयोग खबरों की स्वतंत्रता के लिए होना था, परंतु अब यह ‘गेट पास’ बन चुका है—राशन वितरण केंद्र से लेकर अस्पताल तक हर जगह विशेष सुविधा हेतु। जो पत्रकार पहले सरकार से सवाल करता था, अब वह अधिकारी से “सर, मेरे बेटे के दाखिले में थोड़ा…” कहकर मीडिया की शान को बच्चों की फ़ीस में गिरवी रख देता है।
“सवाल पूछना बंद, प्रेस नोट पढ़ना शुरू”
अब खबरें मैदान में जाकर नहीं, व्हाट्सएप ग्रुप पर बैठकर बनती हैं। जिस दिन किसी मान्यता प्राप्त पत्रकार का फोन नहीं आता, समझिए उस दिन कोई “प्रेस विज्ञप्ति” नहीं आई। सवाल पूछने का दौर गया, अब उत्तर की नकल करना ही पत्रकारिता है।
सरकारी आयोजनों में इन महानुभावों को विशेष सीट मिलती है, और वहां ये फोन से फोटो खींचते हुए ‘कवर स्टोरी’ लिखते हैं—
“आज जिला अधिकारी ने कहा कि हमें मिलकर आगे बढ़ना है।”
(न तो यह खबर है, न ही रिपोर्ट। यह तो फेसबुक पोस्ट के लायक भी नहीं।)
“पत्रकारिता की परीक्षा नहीं, पहचान का पुरस्कार”
मजेदार बात यह है कि पत्रकारिता में मान्यता के लिए कोई गुणवत्ता परीक्षा नहीं। न ही यह पूछा जाता है कि आपने पिछले एक साल में कितनी जनहितकारी खबरें कीं, या आपकी रिपोर्टिंग से समाज में क्या परिवर्तन आया।
पूछा जाता है—
“किस अखबार से हो?” (जो बंद हो चुका है),
“कितने साल से हो?” (भले ही राशन कार्ड में आयु 23 वर्ष ही हो),
“कौन सा नेता जानता है तुम्हें?”
और जब ये तीन प्रश्न पास हो जाएं, तब मिलता है पत्रकारिता का ब्रह्मास्त्र—मान्यता।
“जो पत्रकारिता को समझे, वो आज पत्रकार नहीं होता”
अब जो वास्तव में पत्रकारिता समझता है, भाषा जानता है, सच्चाई से टकराने की हिम्मत रखता है—वह आजकल या तो बेरोजगार है या सोशल मीडिया पर ‘विचार पोस्ट’ कर रहा है। सरकारी मान्यता के दायरे में वह नहीं आता क्योंकि उसकी जेब में ‘मुलाकात योग्य’ नंबर नहीं।
जो गली-मोहल्ले में “भाई साहब पत्रकार हैं” कहकर प्रशासन के सामने इतराता है, वह ही मान्यता प्राप्त है। उसके लिए प्रेस आईडी से बड़ा कोई शस्त्र नहीं—ना ज्ञान चाहिए, ना विवेक।
“समोसे और प्रेस रिलीज़ के युग का पत्रकार”
आखिर में बात आती है पत्रकारिता की मर्यादा की। जो कभी संघर्ष और सत्य की उपज थी, वह अब नाश्ते की प्लेट और सरकारी प्रेस रिलीज़ की गुलाम बन चुकी है। पत्रकारिता अब ‘रिसेप्शन रिपोर्टिंग’ बन गई है। खबर नहीं बनाई जाती, दी जाती है—और छाप दी जाती है, हूबहू।लखनऊ में अनुमानतः लगभग 100‑150 मान्यता प्राप्त पत्रकार, क्योंकि वहीं से राज्य‑स्तरीय प्रतिनिधि समिति से जुड़ी सूची में इतने नाम सुझाए गए हैं ।
चित्रकूट, बांदा, गोंडा, बलरामपुर, देवरिया
इस संबंध में कोई संख्यात्मक डेटा सार्वजनिक रूप से नहीं मिला। संभवतः प्रत्येक जिले में किसी स्थानीय संगठन या पत्रकार एन्क्लेव द्वारा संचालित सूची हो सकती है, पर ये ऑनलाइन स्रोतों में सम्मिलित नहीं हैं।
उत्तर प्रदेश सहित भारत के विभिन्न राज्यों में “मान्यता प्राप्त पत्रकारों” को कुछ विशिष्ट सरकारी सुविधाएँ प्रदान की जाती हैं। इन सुविधाओं का उद्देश्य पत्रकारों को सामाजिक, आर्थिक और व्यावसायिक स्थायित्व देना है, लेकिन कई बार ये सुविधाएँ आलोचना और दुरुपयोग के संदर्भ में भी चर्चा में रहती हैं।
यहाँ हम उत्तर प्रदेश के परिप्रेक्ष्य में मान्यता प्राप्त पत्रकारों को मिलने वाली प्रमुख सरकारी सुविधाओं का विस्तृत विवेचन कर रहे हैं:
📝 सरकारी पहचान और विशेषाधिकार
मान्यता प्राप्त पत्रकार को सूचना एवं जनसंपर्क विभाग (DIPR) द्वारा एक आधिकारिक पहचान पत्र (आईडी) प्रदान किया जाता है। यह कार्ड उन्हें विभिन्न सरकारी आयोजनों, प्रेस कांफ्रेंस, विधानसभा कवरेज आदि में विशेष प्रवेश प्रदान करता है।
- प्रमुख सरकारी बैठकों/कॉन्फ्रेंसों में आरक्षित सीटें
- मंत्रियों, अधिकारियों से मिलने की सुलभता
- वीआईपी कक्षों में प्रवेश की अनुमति (कई जिलों में)
🏠 आवास सुविधा
कुछ राज्य सरकारें मान्यता प्राप्त पत्रकारों के लिए विशेष पत्रकार आवास योजना (Journalist Housing Scheme) चलाती हैं। उत्तर प्रदेश में लखनऊ जैसे नगरों में:
पत्रकार पुरम नामक कॉलोनियाँ विकसित की गई हैं।
सस्ती दरों पर प्लॉट/फ्लैट आवंटित किए जाते हैं।
कभी-कभी नगर विकास प्राधिकरण (LDA, ADA आदि) से समन्वय होता है।
विवाद: इसमें ‘फर्जी पत्रकारों’ को लाभ पहुंचाने के कई मामले उजागर हो चुके हैं।
🧾पेंशन योजना (Journalist Pension Scheme)
उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा वरिष्ठ पत्रकारों (60 वर्ष या अधिक) को प्रतिमाह पेंशन देने की योजना है। शर्तें:
- पत्रकारिता में कम-से-कम 20 वर्षों का अनुभव
- राज्य या जिला स्तर पर मान्यता प्राप्त होना
- पत्रकार की मृत्यु पर आश्रित को पारिवारिक पेंशन का प्रावधान
- राशि: ₹10,000 से ₹15,000 प्रतिमाह तक (राज्य नीति पर निर्भर)
🏥 स्वास्थ्य एवं चिकित्सा सहायता
कुछ जिलों में चयनित सरकारी अस्पतालों में पत्रकारों को विशेष चिकित्सा सुविधा या प्राथमिकता दी जाती है:
- निशुल्क ओपीडी जांच
- विशिष्ट “पत्रकार हेल्थ कार्ड” योजना (कुछ राज्यों में शुरू हुई, यूपी में विचाराधीन)
- गंभीर बीमारी या दुर्घटना पर मुख्यमंत्री विवेकाधीन कोष से सहायता
⚰️ मृत्यु/दुर्घटना पर अनुग्रह राशि
यदि मान्यता प्राप्त पत्रकार की मृत्यु किसी ड्यूटी के दौरान या दुर्घटना से हो, तो सरकार द्वारा निम्नलिखित सहायता दी जाती है:
- ₹5 लाख तक की सहायता
- पत्रकार के आश्रित को नौकरी (कुछ मामलों में)
- स्थानीय जिला प्रशासन द्वारा श्रद्धांजलि आयोजन
🏫 शैक्षिक व अन्य रियायतें
कुछ मामलों में पत्रकारों के बच्चों को सरकारी स्कूलों/कॉलेजों/विशेष पत्रकार प्रशिक्षण कार्यक्रमों में:
- आरक्षित सीटें
- छात्रवृत्तियाँ
- प्रवेश शुल्क में छूट
हालांकि, यह सुविधा अक्सर औपचारिक नीति में नहीं होती, बल्कि व्यक्तिगत अनुशंसा के आधार पर दी जाती है।
🚘 परिवहन और प्रेस वाहन पास
राज्य सरकार और जिला प्रशासन द्वारा मान्यता प्राप्त पत्रकारों को:
- प्रेस लिखी हुई गाड़ियों के लिए पास
- सरकारी आयोजनों में वाहन प्रवेश
- कभी-कभी रोड टैक्स छूट (कुछ राज्यों में)
- यूपी में प्रेस वाहन को ट्रैफिक नियमों में छूट नहीं है, लेकिन व्यवहार में प्रशासनिक ‘लचीलापन’ बरता जाता है।
📦 सरकारी आयोजनों में विशिष्ट आमंत्रण
- गणतंत्र दिवस, स्वतंत्रता दिवस, मुख्यमंत्री संवाद, जिला समीक्षा बैठक, आदि जैसे आयोजनों में निमंत्रण
- सरकारी होर्डिंग, प्रचार सामग्री, योजनाओं की कवरेज हेतु वरीयता
- प्रायः ‘भोजन-प्रेस किट’ और उपहार भी मिलते हैं
🔍 सूचना प्राथमिकता व प्रेस विज्ञप्तियाँ
- मान्यता प्राप्त पत्रकारों को सरकारी सूचना पहले उपलब्ध कराई जाती है
- ईमेल, व्हाट्सएप ग्रुप में सीधे DIPR, CMO, DPRO जुड़े रहते हैं
- न्यूज़ एजेंसी और विभागों से अनन्य दस्तावेज
⚠️ आलोचनात्मक पहलू:
इन सभी सुविधाओं के पीछे एक सद्भावना आधारित सोच है, लेकिन व्यवहार में:
- फर्जी पत्रकारों का प्रवेश
- ‘सरकारी कृपा’ के बदले निष्पक्ष पत्रकारिता का ह्रास
- योग्य लेकिन गैर-मान्यता प्राप्त पत्रकारों की उपेक्षा
- पत्रकार संगठनों में आंतरिक राजनीति और गुटबाज़ी
मान्यता प्राप्त पत्रकारों को दी जाने वाली सरकारी सुविधाएँ सैद्धांतिक रूप से पत्रकारिता की गरिमा और स्वतंत्रता को सुदृढ़ करने के लिए हैं, लेकिन अगर इनका दुरुपयोग होता है, तो वही सुविधाएँ पत्रकारिता के पतन का कारण बन जाती हैं।
जरूरत है कि मान्यता केवल पत्रकार के कर्म, गुणवत्ता और जनता के प्रति जवाबदेही के आधार पर दी जाए, न कि संपर्कों और चाय-समोसे की मेज़ पर।
और जब यह तथाकथित पत्रकार अपनी कमज़ोर लेखनी के साथ प्रशासनिक चाय पीते हैं, तो लोकतंत्र की आत्मा अपने माथे पर हाथ रख कर कहती है—
“हे संपादकीय प्रभु! मुझे इनसे बचाओ।”
पत्रकारिता एक साधना है। और साधना, मान्यता से नहीं, योग्यता से सिद्ध होती है। पर आज की स्थिति देख कर यह कहना गलत नहीं होगा कि पत्रकारिता अब ‘सरकारी पंचनामा’ बन गई है—जहां सत्य नहीं, सुविधा बिकती है।
हर गली का पत्रकार यदि शुद्ध भाषा न जाने, सवाल पूछने से डरे, और केवल सरकारी चाय की तलाश में रहे,तो लोकतंत्र को खतरा नेताओं से नहीं, इन मान्यता प्राप्त चाय प्रेमियों से है।
और तब, सचमुच एक खबर बनती है—
“पत्रकारिता मरी नहीं है, लेकिन उसे मारने वाले मान्यता पा चुके हैं।”