Sunday, July 20, 2025
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जब पत्नी बनी कातिल: रिश्तों की कब्र पर खड़ी है आधुनिकता की मूरत

समाज में बढ़ती वैवाहिक क्रूरता की घटनाएं मनोवैज्ञानिक और सामाजिक रूप से गहन चिंता का विषय बन चुकी हैं। यह संपादकीय लेख स्त्री और पुरुष दोनों के दृष्टिकोण से क्रूरता की मनोवृत्ति को समझने का प्रयास करता है।

अनिल अनूप

समाज में रिश्तों की परिभाषा दिन-ब-दिन बदल रही है। प्रेम, विश्वास और समझदारी पर टिके संबंध अब अक्सर शक, धोखा और हिंसा की भेंट चढ़ते जा रहे हैं। हाल ही की कुछ चर्चित घटनाओं पर गौर करें, तो यह बात चौंकाने वाली जरूर लगती है, परंतु अनदेखी नहीं की जा सकती कि अब न केवल पुरुष, बल्कि महिलाएं भी रिश्तों में क्रूरता का रास्ता अपना रही हैं। खासतौर पर जब महिलाएं अपने प्रेमी के साथ मिलकर पति की हत्या जैसी अमानवीय साजिशें रचती हैं, तो यह केवल अपराध नहीं रह जाता, यह समाज की उस छुपी हुई पीड़ा का भी संकेत है, जिसे हम वर्षों से अनदेखा करते आए हैं।

क्रूरता का बदलता स्वरूप

क्रूरता केवल शारीरिक नहीं होती, बल्कि मानसिक रूप से भी किसी को तोड़ना उतना ही गंभीर अपराध है। शारीरिक क्रूरता वहां होती है जहां किसी को जान-बूझकर शारीरिक नुकसान पहुंचाया जाता है, जबकि मानसिक क्रूरता कहीं अधिक जटिल होती है—जिसे साबित करना भी कठिन होता है। किसी व्यक्ति को तिरस्कारपूर्ण भाषा से मानसिक चोट देना, बार-बार अपमानित करना, प्रतिष्ठा को नष्ट करना, वैवाहिक संबंधों से इनकार करना या आत्महत्या के लिए उकसाना, सब मानसिक यातना के ही रूप हैं।

आखिर क्यों महिलाएं इस राह पर बढ़ रही हैं?

यह सवाल बेहद गंभीर है कि वे महिलाएं, जिन्हें हम संवेदनशीलता और ममता की मूर्ति मानते हैं, अब हिंसा और षड्यंत्र की प्रतीक क्यों बनती जा रही हैं? मनोवैज्ञानिकों के अनुसार इसका उत्तर एकतरफा नहीं है। कई बार सामाजिक दबाव, जबरन विवाह, पसंद की उपेक्षा, और भावनात्मक दमन के कारण महिलाएं मानसिक असंतुलन की स्थिति में पहुंच जाती हैं।

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इस असंतुलन को जन्म देता है—दबा हुआ गुस्सा, अवांछित संबंध, और आत्मसम्मान की अवहेलना। ऐसी महिलाएं जब रिश्तों में सम्मान या स्वतंत्रता की जगह नियंत्रण और उत्पीड़न महसूस करती हैं, तो वे प्रेम के स्थान पर नफरत पाल लेती हैं। तब क्रूरता उनके लिए प्रतिशोध का माध्यम बन जाती है। और जब इसमें सोशल मीडिया, शराब, ड्रग्स, और बाहरी प्रलोभनों का तड़का लग जाए, तो यह क्रूरता एक विनाशकारी कृत्य बन जाती है।

मूल कारण: पीढ़ियों से उपजी पीड़ा

छोटे शहरों और मध्यम वर्ग की महिलाएं, जो सामाजिक वर्जनाओं में जकड़ी रहीं, आज सोशल मीडिया और आधुनिक जीवनशैली के जरिये एक तरह से विद्रोह कर रही हैं। ये वही महिलाएं हैं जिन्होंने अपनी मांओं और दादियों को पितृसत्ता के नीचे झुका हुआ देखा है। वे जानती हैं कि किस तरह महिला की इच्छाएं, अधिकार और भावनाएं हमेशा दूसरों के अधीन रही हैं। ऐसे में अगर उन्हें थोड़ा भी नियंत्रित किया जाता है, तो उनके अंदर का गुस्सा भड़क उठता है और कई बार वह हिंसा में बदल जाता है।

क्या यह केवल अपराध है या मानसिक बीमारी?

जब कोई महिला अपने पति की हत्या करवा देती है, तो इसे केवल अपराध कह देना नासमझी होगी। कई बार यह मानसिक रोग का लक्षण भी हो सकता है। गुस्सा, अवसाद और भावनात्मक अस्थिरता इन निर्णयों के मूल में होती है। मनोविज्ञान कहता है कि जब कोई व्यक्ति अपने गुस्से को नियंत्रित नहीं कर पाता, तो वह हिंसक हो सकता है। इस स्थिति में पुरुष या महिला का भेद नहीं रह जाता—क्रूरता दोनों में जन्म ले सकती है।

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पुरुष क्रूरता—एक अनदेखा सच

हालांकि, जब हम महिलाओं की हिंसा पर बात करते हैं, तो पुरुषों की क्रूरता को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। आज भी हजारों महिलाएं घरेलू हिंसा, यौन शोषण, अपमान और दमन का शिकार होती हैं। पुरुष हिंसा का सहारा इसलिए नहीं लेते कि वे असहाय हैं, बल्कि इसलिए कि वे समाज में पुरुष होने की ‘विशेष शक्ति’ का दुरुपयोग करते हैं।

मनोवैज्ञानिक बताते हैं कि कई पुरुष असहमति को सहन नहीं कर पाते और हिंसा के जरिए अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहते हैं। यह उनके लिए एक रोमांचक अनुभव बन जाता है, जिसमें उन्हें लगता है कि उन्होंने जीत हासिल की है। बार-बार मारने, दबाने, और डराने से वह महिला को निर्भर और कमजोर बनाए रखते हैं।

क्रूरता की श्रृंखला: प्रतिक्रिया की प्रतिक्रिया

कई बार पुरुषों की क्रूरता ही महिलाओं में प्रतिशोध और हिंसा की भावना को जन्म देती है। अगर एक महिला वर्षों तक मानसिक और शारीरिक यातना सहती रही हो, तो एक दिन वह फट सकती है। यह फटना ही हत्या, आत्महत्या या षड्यंत्र के रूप में सामने आता है। ऐसे में हमें केवल अपराधी को दोष देना नहीं चाहिए, बल्कि उस मानसिक और सामाजिक ढांचे को भी दोषी ठहराना चाहिए, जिसने उस महिला को वहां तक पहुंचाया।

रिश्तों की गहराई में छुपा हल

हर रिश्ता विश्वास की नींव पर खड़ा होता है, परंतु आज रिश्ते भावनाओं की जगह मूड और मनोरंजन पर आधारित होते जा रहे हैं। सोशल मीडिया, दिखावे और तुलना ने रिश्तों को खोखला बना दिया है। अब समझौते की जगह ‘मेरी मर्जी नहीं चली तो रिश्ता नहीं चलेगा’ वाली सोच घर कर गई है। यह प्रवृत्ति न केवल महिलाओं में, बल्कि पुरुषों में भी देखने को मिल रही है।

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ऐसे में रिश्ते जल्दी टूटते हैं, और जब टूटते हैं तो दर्द और गुस्सा जन्म लेता है, जो अंततः हिंसा की ओर ले जाता है।

क्या है समाधान?

समाधान केवल कानून या सजा में नहीं, बल्कि समाज की मानसिकता बदलने में है। हमें युवाओं को बचपन से ही संबंधों में सम्मान, संवाद और सहानुभूति का पाठ पढ़ाना होगा। शिक्षा प्रणाली में भावनात्मक बुद्धिमत्ता और मानसिक स्वास्थ्य को शामिल करना जरूरी है।

पुरुषों को भी यह समझना होगा कि मर्दानगी का मतलब नियंत्रण नहीं, बल्कि सहयोग है। वहीं, महिलाओं को भी अपनी स्वतंत्रता का उपयोग समझदारी और जिम्मेदारी से करना चाहिए। नशे, सोशल मीडिया और झूठी तुलना से दूर रहकर ही वे अपने आत्म-सम्मान को स्वस्थ रूप में जी सकती हैं।

न कोई संपूर्ण निर्दोष, न संपूर्ण दोषी

इस समूचे विमर्श का निष्कर्ष यही है कि रिश्तों में क्रूरता—चाहे वह स्त्री करे या पुरुष—मानवता के पतन का संकेत है। हर क्रूरता का कोई इतिहास होता है, कोई मानसिक चोट या सामाजिक दबाव। ऐसे में समाधान केवल सजा नहीं, बल्कि संवेदना और मानसिक उपचार है।

हमें यह स्वीकार करना होगा कि किसी भी रिश्ते में सम्मान, संवाद और सहमति सबसे अहम हैं। रिश्तों को जबरन थोपने या कंट्रोल करने की प्रवृत्ति ही दरअसल क्रूरता को जन्म देती है। और जब तक समाज इस मूल समस्या को नहीं समझेगा, तब तक कोई भी कानून इस समस्या का स्थायी समाधान नहीं दे सकता।

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