प्राइवेट स्कूलों में फीस का आतंक — अभिभावकों की चीख सुनने वाला कौन है सरकार में?

✍ रिपोर्ट : कमलेश कुमार चौधरी

लखनऊ। नवाबों के शहर की तहज़ीब के बीच आज एक बेचैन सच्चाई छुपी है। शिक्षा, जिसे सबसे पवित्र माना जाता है, अब बाजार में बिक रही है। अभिभावक अपनी कमर तोड़कर फीस भर रहे हैं, लेकिन किसी सत्ता या व्यवस्था को इससे फर्क नहीं पड़ता।

बच्चे के भविष्य के नाम पर निजी स्कूलों ने ऐसा शिकंजा कसा है, जिसमें अभिभावक टूटते जा रहे हैं — आर्थिक रूप से भी और मानसिक रूप से भी।

बच्चे का भविष्य बंधक — और अभिभावक की मासिक आय गिरवी

लखनऊ के गोमतीनगर के दंपती अर्पित और पायल के दो बच्चे हैं। दोनों अच्छे नौकरीपेशा हैं — कुल मिलाकर लगभग ₹55,000 महीना घर आता है। लेकिन बच्चों की फीस?

बड़ा बच्चा: ₹8,200 ट्यूशन + ₹3,200 ट्रांसपोर्ट। छोटा बच्चा: ₹6,900 ट्यूशन + ₹3,000 ट्रांसपोर्ट। हर महीने सिर्फ फीस और ट्रांसपोर्ट पर लगभग ₹21,300 रुपये। घर का किराया, राशन, दवाइयाँ, बिजली — सब कैसे चले?

लेकिन मजबूरी — स्कूल बदलें तो बच्चे का साल खराब, और सरकारी स्कूल का भरोसा नहीं। यह कहानी सिर्फ अर्पित-पायल की नहीं; लखनऊ के हजारों घरों की कहानी है।

फीस बढ़ाने का टारगेट — शिक्षा नहीं, कमाई प्राथमिकता

प्राइवेट स्कूल कहते हैं कि फीस सिर्फ 5–7% बढ़ती है। लेकिन जमीनी हकीकत बिल्कुल विपरीत है। उदाहरण के तौर पर, अलीगंज के एक प्रसिद्ध इंटरनेशनल स्कूल ने 2022 में LKG की ट्यूशन फीस ₹4,500 से बढ़ाकर 2023 में ₹5,750 कर दी। यह 27% की बढ़ोतरी है।

और इतना ही नहीं, 2024 में वही फीस ₹6,850 कर दी गई — यानी दो वर्षों में कुल 52% की वृद्धि। जब माता-पिता ने विरोध किया तो उन्हें जवाब मिला: “अगले सत्र में एडमिशन न कराएं तो आपका विकल्प खुला है।” यानी शिक्षा सेवा नहीं — पूरी तरह कॉर्पोरेट स्टाइल ग्राहक चयन नीति।

यूनिफॉर्म और किताबों पर स्कूलों की कमाई — खुलेआम व्यवसाय

सरकार का नियम साफ है — यूनिफॉर्म और किताबें स्कूल छात्रों पर जबरन नहीं थोप सकते। लेकिन हकीकत? विकासनगर की सुरभि, जिसका बेटा कक्षा 3 में पढ़ता है, बताती हैं:

“स्कूल ने नोटिस लगाया कि यूनिफॉर्म और किताबें सिर्फ ‘स्कूल कैंपस बुक एण्ड यूनिफॉर्म स्टोर’ से ही खरीदनी होंगी। बाजार में वैसा ही कपड़ा देखने पर भी उन्होंने कहा ‘ये स्कूल के पैटर्न की नहीं है’, बच्चा दो दिन बिना यूनिफॉर्म में बैठा रहा। मजबूरी में ₹11,200 की यूनिफॉर्म और किताबें लेनी पड़ीं।”

यह सिर्फ एक उदाहरण नहीं — लखनऊ के लगभग हर बड़े निजी स्कूल में यही अनिवार्य खरीद नीति लागू है, जो असल में कमीशन आधारित मोटा व्यवसाय है।

फीस न जमा होने पर अपमान — बच्चों की भावनाएँ कुचलने वाला नियम

सबसे कड़वा सच — फीस विवाद अभिभावक और स्कूल के बीच होता है लेकिन सजा बच्चे को मिलती है। चारबाग के आनंद बताते हैं:

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“15 दिन देरी से फीस जमा हुई। क्लास टीचर ने मेरे बेटे को स्टाफ रूम के बाहर बिठाया और बाकियों से कहा — ‘फीस नहीं भरते तो स्कूल क्यों आते हैं?’ बच्चा तीन दिन तक स्कूल नहीं जाना चाहता था।”

यह घटना अकेली नहीं, लखनऊ के दर्जनों स्कूलों में फीस के आधार पर बच्चा रोका, टोका, अपमानित और प्रताड़ित किया जाता है। कानून स्पष्ट कहता है कि बच्चे पर कोई दंडात्मक कार्रवाई नहीं की जा सकती। लेकिन कानून सिर्फ पुस्तकों में है, क्रियान्वयन शून्य है।

सरकारी खामोशी — क्यों? क्योंकि खेल बड़ा है

शिक्षा विभाग में हर साल हजारों शिकायतें दर्ज होती हैं, लेकिन कार्रवाई? महज दिखावा। स्कूल को नोटिस जाता है, स्कूल जवाब में लंबा विरोध पत्र देता है, जांच टीम आती है और अंत में — स्कूल को क्लीन चिट।

क्यों? क्योंकि कई स्कूल राजनेताओं के परिवार चलाते हैं। बड़े उद्योगपतियों की चेन हैं। प्रभावशाली वर्ग से जुड़े हैं। अधिकारियों के रिश्तेदारों की हिस्सेदारी है। सरकार चाहती तो हालत 24 घंटे में बदल सकती थी लेकिन मंशा ही नहीं है।

माता-पिता — अकेली लड़ाई में अकेले योद्धा

जब अभिभावक विरोध करते हैं, तो स्कूल प्रबंधन एकजुट हो जाता है लेकिन अभिभावक विभाजित क्योंकि कोई भी अपने बच्चे का भविष्य जोखिम में नहीं डाल सकता। बच्चे को नुकसान पहुंचने के डर से अभिभावक बोलते नहीं — और इसी चुप्पी पर स्कूल अपना साम्राज्य चला रहे हैं।

लखनऊ में यह समस्या कितनी गंभीर है — एक और उदाहरण

इंदिरानगर की सोनल सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं। उनके स्कूल में अचानक “टेक्नोलॉजी मेंटेनेंस चार्ज” नामक नया शुल्क जोड़ दिया गया — ₹5,200 सालाना। उन्होंने पूछा — यह किस चीज़ का शुल्क है? उत्तर मिला — “सर्वर, एप्लीकेशन और डिजिटल टेक्नोलॉजी के उन्नयन हेतु।”

लेकिन विडम्बना देखिए, स्कूल में इंटरनेट महीनों तक बंद रहता है, अभिभावक बार-बार शिकायत करते हैं लेकिन शुल्क वापस नहीं किया जाता। यानी पैसा नई योजनाओं के नाम पर लिया जाता है, लेकिन कोई ऑडिट, पारदर्शिता, जवाबदेही नहीं।

यह सिर्फ फीस का संघर्ष नहीं — यह बच्चों के सम्मान की लड़ाई है

एक स्वस्थ समाज में शिक्षा व्यापार नहीं होनी चाहिए। बच्चों को अपमान नहीं सहना चाहिए। अभिभावकों को गुलाम नहीं माना जाना चाहिए। लेकिन लखनऊ में शिक्षा का मॉडल उल्टा है, जो जितना चुकाएगा, उसी के बच्चे को श्रेष्ठता मिलेगी।

जहाँ शिक्षा पैसे पर आधारित हो जाए, वहाँ मानवता खत्म होती है और भविष्य वर्गों में बंट जाता है।

वक्त आ गया है कि लखनऊ आवाज उठाए

जरूरी कदम जो सरकार को लागू करने चाहिए:

🔹 फीस नियामक आयोग — जिसमें अभिभावकों के प्रतिनिधि शामिल हों।
🔹 प्रत्येक निजी स्कूल का वार्षिक ऑडिट अनिवार्य।
🔹 किताबें व यूनिफॉर्म खुले बाजार से खरीदने की अनुमति।
🔹 फीस वृद्धि पूर्ण पारदर्शिता और कारण सहित।
🔹 किसी भी स्थिति में बच्चे पर दंडात्मक कार्रवाई का पूर्ण प्रतिबंध।

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जब तक यह नहीं होगा लखनऊ के अभिभावक शोषित रहेंगे, बच्चे मानसिक तनाव झेलते रहेंगे और स्कूल मोटी कमाई करते रहेंगे।

अंत में — सरकार और व्यवस्था से एक सीधा सवाल

📍 क्या गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सिर्फ अमीरों के हिस्से में जाएगी?
📍 क्या मध्यवर्गीय माता-पिता बच्चे पालने का ‘अपराध’ कर रहे हैं?
📍 क्या स्कूलों को फीस बढ़ाने और मनमानी करने की छूट संविधान देता है?

अगर उत्तर नहीं, तो फिर कार्यवाही क्यों नहीं? अगर उत्तर हां, तो फिर यह लोकतंत्र किसके लिए है?

🔹 शिक्षा अधिकार है, व्यापार नहीं।
🔹 बच्चे इज्जत के साथ सीखें — यह सरकार का कर्तव्य है, स्कूल का एहसान नहीं।

नामी-गिरामी स्कूलों में दाखिले की होड़ — आखिर क्यों?

यह प्रश्न बेहद महत्वपूर्ण है कि जब निजी शिक्षा इतनी महंगी और शोषणकारी है, फिर भी अभिभावक अपने बच्चों को कथित नामी-गिरामी स्कूलों में दाखिला दिलाने के लिए लाइन में क्यों खड़े रहते हैं? इसका जवाब भावनात्मक नहीं, बल्कि सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और व्यावहारिक संकेतों में छुपा है।

पहला और सबसे बड़ा कारण है सरकारी स्कूलों से भरोसे का खत्म होना। अभिभावक अच्छी शिक्षा चाहते हैं, लेकिन सरकारी स्कूलों की छवि आज भी “टूटी डेस्क–मैदान में प्रार्थना–पढ़ाई कम योजनाएँ ज्यादा” जैसी बनी हुई है। यही वजह है कि पैसे की कमी होते हुए भी अभिभावक निजी स्कूलों का विकल्प चुनने को मजबूर हैं।

दूसरा कारण है समाज में प्रतिष्ठा और प्रतिस्पर्धा की भावना। बच्चे के स्कूल का नाम एक तरह से परिवार की सामाजिक स्थिति का परिचय बन गया है। लोग मानते हैं — “अगर बच्चा फलां स्कूल में पढ़ता है तो भविष्य सुरक्षित है।” यह धारणा वास्तविकता हो या भ्रम — लेकिन समाज इसे सच मान चुका है।

तीसरा कारण है भाषा और संचार की दौड़। अधिकांश निजी स्कूल अंग्रेज़ी माध्यम के हैं और अभिभावक डरते हैं कि यदि बच्चा अंग्रेज़ी में कमजोर रह गया तो भविष्य में नौकरी की रेस में पीछे रह जाएगा। इसलिए महंगी फीस के बावजूद वे अंग्रेज़ी आधारित शिक्षा को प्राथमिकता देते हैं।

चौथा कारण सुरक्षा, अनुशासन और परिवेश का मोह है। निजी स्कूलों का कैंपस, ड्रेस कोड, गतिविधियाँ, खेल, सभ्य वातावरण — यह सब अभिभावकों को आकर्षित करता है। वे चाहते हैं कि बच्चा पढ़ाई के साथ-साथ आत्मविश्वास और व्यक्तित्व विकास भी सीखे, और यह चीजें सरकारी विद्यालयों में प्रायः नहीं मिलतीं।

पाँचवाँ और सबसे महत्वपूर्ण कारण है मनोवैज्ञानिक दबाव और भीड़ का असर। जब पड़ोसी, रिश्तेदार, दोस्त सभी बच्चे को प्रतिष्ठित स्कूल में भेज रहे हों — तब नया अभिभावक भी उसी भीड़ में शामिल हो जाता है। लोग यह मानकर चलते हैं कि “भीड़ गलत नहीं हो सकती”, जबकि सच्चाई यह है कि भीड़ कई बार भावनाओं में बहकर फैसले लेती है, समझदारी से नहीं।

यानी निष्कर्ष साफ है— लोग महंगी शिक्षा इसलिए नहीं खरीद रहे कि वे अमीर हैं, बल्कि इसलिए कि उनके पास विकल्प नहीं हैं, और भविष्य को लेकर भय है। नामी-गिरामी स्कूल ब्रांड बन चुके हैं और अभिभावक ब्रांड के भरोसे भविष्य सुरक्षित करने का भ्रम पालते हैं।

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असल समस्या शिक्षा की कीमत नहीं, बेहतर शिक्षा के विकल्पों की कमी और समाज की सोच है — जो महंगी शिक्षा को ही “उत्तम शिक्षा” मान बैठी है। जब तक यह सोच नहीं बदलेगी, तब तक फीस शोषण जारी रहेगा।

महंगी शिक्षा प्रणाली पर सरकार के नियम — कागज़ पर सख़्त, ज़मीन पर ढीले

यह धारणा गलत नहीं कि प्राइवेट स्कूल मनमानी कर रहे हैं, लेकिन यह कहना भी पूरी तरह सही नहीं कि सरकार ने कोई नियम बनाए ही नहीं हैं। नियम मौजूद हैं— और काफी सख़्त भी हैं—पर समस्या क्रियान्वयन और निरीक्षण की है।

सबसे पहले बात शुल्क नियंत्रण की। उत्तर प्रदेश स्व-वित्तपोषित स्वतंत्र विद्यालय (शुल्क विनियमन) अधिनियम 2018 के अनुसार कोई भी निजी स्कूल बिना कारण बताए फीस मनमाने ढंग से नहीं बढ़ा सकता। अधिनियम के तहत शर्तें स्पष्ट हैं— फीस वृद्धि केवल शैक्षणिक सत्र में एक बार की जा सकती है। वृद्धि औसत 5–8% के बीच रखी जानी चाहिए। फीस वृद्धि का विस्तृत कारण सार्वजनिक करना अनिवार्य है। यदि अभिभावक फैसले से असंतुष्ट हों तो वे शुल्क नियामक समिति में शिकायत दर्ज कर सकते हैं।

इसी अधिनियम में यूनिफॉर्म, किताबें और स्टेशनरी को लेकर भी व्यवस्था शामिल है। नियम के अनुसार— स्कूल किसी विशेष दुकान से सामान खरीदने को बाध्य नहीं कर सकता। एक ही पैटर्न की यूनिफॉर्म 3 वर्षों तक नहीं बदली जानी चाहिए। पुस्तक सूची शैक्षणिक वर्ष शुरू होने से कम से कम 60 दिन पहले सार्वजनिक होनी चाहिए।

इतना ही नहीं, सरकार ने छात्र कल्याण संरक्षण प्रावधान भी लागू किया है, जिसके अनुसार — बकाया फीस के मामले में बच्चों को कक्षा, परीक्षा, बस सेवा या रिपोर्ट कार्ड से वंचित नहीं किया जा सकता। किसी भी परिस्थिति में बच्चे को अपमानित या सार्वजनिक रूप से अलग नहीं किया जा सकता।

सैद्धांतिक रूप से इन नियमों के तहत प्राइवेट स्कूलों पर कड़ा नियंत्रण होना चाहिए। अगर कोई स्कूल नियम तोड़ता है तो— चेतावनी, जुर्माना, मान्यता रद्द करने तक का अधिकार सरकार के पास है। लेकिन वास्तविकता यही है कि इन नियमों का पालन तभी होता है जब कोई बड़ा सामूहिक विरोध, मीडिया दबाव या हाईकोर्ट/सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर होती है। शिकायतें दर्ज तो होती हैं, पर उनका निपटान धीमा और औपचारिक होता है।

यानी कागज़ पर सरकार का शिकंजा मजबूत है, पर जमीन पर स्कूलों के सामने लोकतांत्रिक व्यवस्था कमजोर पड़ जाती है। अभिभावकों के हित तभी सुरक्षित हो सकते हैं, जब कानून सिर्फ मौजूद न रहे — बल्कि उसका समयबद्ध और कठोर लागू होना भी सुनिश्चित किया जाए।

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