
रावण जलता है हर साल
-अनिल अनूप
दशहरे का पर्व भारतभर में हर साल बड़े उत्साह और श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। रावण की दस-सिरों वाली प्रतिमा ज्वालाओं में लुप्त हो जाती है और लोग इसे अच्छाई की जीत और बुराई के अंत का प्रतीक मानते हैं। बच्चे उत्साह में झूलते हैं, बड़े संतोष के भाव से पूजा करते हैं और समाज में नैतिकता का संदेश फैलता है।
लेकिन क्या कभी हमने सोचा है कि जब रावण जैसी प्रतिमा हर साल जल सकती है, तो हमारी अपनी बुराई, जो झूठ, ईर्ष्या, आलस्य और अहंकार के रूप में हमारे भीतर पनपती रहती है, वह क्यों नहीं मरती? यह सवाल हमारे व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन की गहरी समझ की ओर ले जाता है।
रावण केवल बाहरी प्रतीक था। उसे समाप्त करना संभव था क्योंकि उसकी कमजोरी स्पष्ट थी। लेकिन हमारी बुराई अदृश्य और जटिल है। यह हमारे विचारों, आदतों और व्यवहार में जड़ जमाती है और अक्सर हम इसके प्रति निष्क्रिय रहते हैं।
रावण जलता है, हमारी भीतर की बुराई क्यों नहीं?
रावण का दहन भौतिक था। उसका शरीर पकड़ने योग्य था और उसका अंत निश्चित था। यही कारण है कि दशहरे में रावण का जलना सहज और लोकप्रिय अनुष्ठान बन गया।
हमारी बुराई, इसके विपरीत, अदृश्य और जटिल है। यह झूठ, अहंकार, ईर्ष्या, कटुता और आलस्य के रूप में हमारे विचारों और आदतों में जड़ जमाती है।
उदाहरण के तौर पर हम किसी कार्य को टालते हैं, दूसरों की सफलता देखकर खट्टा मन रखते हैं, और छोटी-छोटी बातों पर झूठ बोलकर अपने स्वाभिमान की रक्षा करते हैं।
इस तरह हमारी बुराई रोज़मर्रा के जीवन में सक्रिय रहती है। यह परिवार में तनाव पैदा करती है, कार्यस्थल पर सहकर्मियों के बीच मतभेद को बढ़ाती है और सामाजिक व्यवहार में असंतोष और नकारात्मकता फैलाती है। यही कारण है कि रावण का दहन प्रतीकात्मक होने के बावजूद हमारी भीतर की बुराई पर कोई स्थायी प्रभाव नहीं डालता।
हमारी बुराई की जड़ें
हमारी भीतर की बुराई केवल व्यक्तिगत आदतों का परिणाम नहीं है। यह सामाजिक और पारिवारिक संरचनाओं में भी जन्म लेती है और पनपती है। छोटे झूठ, आलस्य, तुच्छ ईर्ष्या और अहंकार समय के साथ हमारी स्वाभाविक प्रवृत्तियों का हिस्सा बन जाते हैं।
साथ ही आधुनिक जीवनशैली और डिजिटल दुनिया इन बुराइयों को पोषित करती हैं। सोशल मीडिया पर दूसरों की उपलब्धियों को देखकर उत्पन्न होने वाली ईर्ष्या, लगातार डिजिटल व्यस्तता और तुरंत मिलने वाली जानकारी की लालसा हमारे भीतर की नकारात्मक भावनाओं को लगातार सक्रिय रखती है।
इसका परिणाम यह होता है कि हम हर साल दशहरे पर रावण को जलाने के बाद भी अपनी अंदरूनी बुराई को भस्म नहीं कर पाते। यही कारण है कि हमारी आत्मा का रावण कभी मरता नहीं।
बुराई का प्रभाव
हमारी भीतर की बुराई न केवल व्यक्तिगत जीवन को प्रभावित करती है, बल्कि समाज में भी प्रतिकूल परिणाम उत्पन्न करती है। यह हमारे परिवारिक और सामाजिक संबंधों में तनाव बढ़ाती है। कार्यस्थल पर यह उत्पादकता और सहयोग को प्रभावित करती है। इसके अलावा, यह मानसिक स्वास्थ्य और व्यक्तिगत विकास में बाधा डालती है।
यदि किसी व्यक्ति के भीतर ईर्ष्या या अहंकार प्रबल हो, तो वह दूसरों की सहायता करने के बजाय उन्हें पीछे खींचने में समय और ऊर्जा लगाता है। आलस्य और अनियमितता हमारे लक्ष्य की प्राप्ति में बाधक बनती हैं। झूठ और कपट सामाजिक विश्वास को कमजोर करते हैं और रिश्तों को अस्थिर बनाते हैं।
इस प्रकार हमारी बुराई केवल व्यक्तिगत समस्या नहीं है, बल्कि यह समाज और संस्कृति पर भी गंभीर प्रभाव डालती है।
क्यों नहीं मरती हमारी बुराई?
पहला कारण हमारी आदतें हैं। मानव मन अपने स्वभाव और आदतों के कारण छोटी-छोटी बुराइयों को लंबे समय तक पालता है। जब कोई नकारात्मक व्यवहार बार-बार दोहराया जाता है, तो वह स्वभाव का हिस्सा बन जाता है।
दूसरा कारण सामाजिक और पारिवारिक प्रभाव है। समाज में प्रचलित मानसिकताओं और पारिवारिक संरचनाओं में गहरे बसे दृष्टिकोण हमारी बुराई को पोषित करते हैं। तीसरा कारण आत्मनिरीक्षण की कमी है। रावण को पहचानना आसान था, लेकिन अपनी भीतर की बुराई को पहचानना कठिन है।
इसके परिणामस्वरूप हमारी बुराई लगातार सक्रिय रहती है। समय के साथ यह हमारी सोच और व्यवहार में और गहरी जड़ें जमा लेती है।
आत्मनिरीक्षण और समाधान
रावण का दहन केवल प्रतीक है। हमारी बुराइयों को समाप्त करने के लिए आवश्यक है कि हम दैनिक जीवन में वास्तविक प्रयास करें। आत्मनिरीक्षण इसके लिए पहला कदम है। हमें हर दिन अपने विचारों, शब्दों और कर्मों का विश्लेषण करना चाहिए।
सकारात्मक आदतें अपनाना भी महत्वपूर्ण है। समय पर कार्य करना, दूसरों की सफलता की सराहना करना और जिम्मेदारियों को ईमानदारी से निभाना इन बुराइयों को कम करता है। ध्यान और योग जैसी मानसिक गतिविधियाँ हमारे मन को स्थिर रखने और नकारात्मक भावनाओं से मुक्त होने में सहायक होती हैं।
सामाजिक और पारिवारिक समर्थन भी महत्वपूर्ण है। जब हम अपनी बुराइयों को पहचानने और सुधारने में अपने परिवार और मित्रों से मार्गदर्शन प्राप्त करते हैं, तो इसका प्रभाव स्थायी होता है। यह न केवल व्यक्तिगत विकास में मदद करता है, बल्कि समाज में भी सकारात्मक परिवर्तन लाता है।
दशहरे का वास्तविक संदेश
रावण का जलना केवल प्रतीक है। असली संदेश यह होना चाहिए कि हम अपनी भीतर की बुराइयों को पहचानें और उन्हें सुधारने का प्रयास करें। अच्छाई की विजय केवल बाहरी लड़ाई में नहीं, बल्कि हमारे विचारों, आदतों और व्यवहार की लड़ाई में भी होनी चाहिए।
जब हम अपने भीतर के रावण को समाप्त करने में सफल होते हैं, तभी हम सच्चा उत्सव और आत्मिक संतोष महसूस कर सकते हैं। दशहरे का पर्व केवल प्रतीकात्मक उत्सव नहीं, बल्कि आत्मनिरीक्षण और व्यक्तिगत सुधार का अवसर बन जाता है।
रावण हर साल जलता है, लेकिन हमारी भीतर की बुराई स्थायी रहती है। इसका मुख्य कारण यह है कि यह हमारे विचारों और आदतों में गहरी जड़ें जमा चुकी है। इसे समाप्त करने के लिए आवश्यक है कि हम नियमित आत्मनिरीक्षण करें, सकारात्मक आदतें अपनाएँ और सामाजिक एवं पारिवारिक सहयोग से अपने व्यवहार को सुधारें।
दशहरे का पर्व हमें केवल बाहरी प्रतीक के रूप में नहीं बल्कि अंदरूनी सुधार और आत्मा के रावण को भस्म करने के रूप में देखने की प्रेरणा देता है। तभी हमारी आत्मा की शुद्धि और मानसिक संतोष संभव है।
भीड़ तंत्र का बढ़ता हुआ साम्राज्य, भौतिकवाद का बोलबाला, वैश्वीकरण का प्रभाव, आर्थिक प्रतिस्पर्धा, नैतिक मूल्य का दिनों दिन हास हो रहा है। ऐसी हालत में रावण को मारना मुश्किल भी नहीं नामुमकिन सा लग रहा है। आपका संदेश समाज को राक्षकवृत्ति से समाज निवृत हुए बिना रावण का अंत कैसे सम्भव होगा।