✍️ हंसराज तंवर
[“रिश्तों की लहरें गहराई नहीं देखतीं—कभी साथ बहा ले जाती हैं, कभी डुबो देती हैं। पर हर बार सवाल यही रहता है—क्या बहाव में खुद को खो देना ही समझदारी है?”]
समुद्र की लहरों की तरह रिश्ते भी होते हैं—कभी सहलाते हैं, कभी खींचते हैं। कुछ रिश्ते किनारे की रेत जैसे होते हैं—तुम जितना थामना चाहो, उतना ही फिसल जाते हैं। मनीषा के जीवन में भी ऐसे ही रिश्तों का भंवर चल रहा था—बाहरी रूप से शांत, पर भीतर गहराई में हलचल भरा।
मनीषा एक पढ़ी-लिखी, आत्मनिर्भर और आधुनिक सोच रखने वाली लड़की थी। स्वतंत्रता और गरिमा उसके जीवन के आधार स्तंभ थे। विवाह के समय उसकी मां ने स्नेहपूर्वक समझाया था—
“बेटा, बहू बनना आसान नहीं, सबके मन को समझकर चलना पड़ता है।”
मनीषा ने उस दिन यह बात मन में बैठा ली थी।
उसके ससुराल का माहौल पारंपरिक था। सास, शकुंतला देवी, पूरे मोहल्ले में “संस्कारों वाली” महिला के रूप में जानी जाती थीं—बिल्कुल साफ-सुथरे सिद्धांत, पर लचीलेपन की ज़रा सी गुंजाइश नहीं।
पति, आलोक, एक नौकरीपेशा और शांत स्वभाव का युवक था—जो मनीषा से प्रेम करता था, पर मां के सामने अक्सर मौन धारण कर लेता था।
संघर्ष की शुरुआत
शादी के कुछ महीने बाद मनीषा ने सहज रूप से एक दिन सास से कहा—
“मांजी, सोच रही थी घर के काम सलवार-कुर्ते या ट्रैक पैंट में करूं तो ज्यादा आराम रहेगा… साड़ी में थोड़ी दिक्कत होती है।”
सास ने चश्मे के पार उसे घूरते हुए कहा—
“बहू, इस घर में बहुओं की मर्यादा होती है। मोहल्ले में नाक कटवाने का इरादा है क्या?”
बात वहीं खत्म हो गई, बिना मनीषा की बात समझे।
मनीषा चुप रही, पर भीतर कुछ दरक गया था। उसने खुद से कहा—”ठीक है, खुद को ढालूंगी… अभी वक्त नहीं आया।”
कुछ दिन बाद ननद पूजा का एक वीडियो उसके मोबाइल पर आया। पूजा अपने ससुराल में जींस और टी-शर्ट में रसोई संभाल रही थी, मेहमानों के बीच सहज घूम रही थी।
मनीषा ने वीडियो चुपचाप सास को दिखाया—
“मांजी, पूजा दीदी तो ऐसे ही कपड़ों में हैं, वहां सबको ठीक लगता है?”
सास असहज हो उठीं—
“बेटी-बेटी होती है, और बहू… बहू। यहां के नियम अलग हैं।”
मनीषा ने पहली बार संयत पर स्पष्ट स्वर में कहा—
“अगर संस्कार लिबास से तय होते हैं, तो फिर बेटी और बहू में अलग-अलग नियम क्यों? क्या मेरे आत्मसम्मान का कोई मूल्य नहीं?”
इस बार शकुंतला देवी कुछ पल को मौन रहीं, फिर बोलीं—
“अगर इस घर में रहना है, तो जैसे मैं कहूं, वैसे ही चलना होगा। वरना… तुम्हारे लिए दरवाज़ा खुला है।”
उस रात आलोक ने मनीषा से पूछा—
“क्या बात है मनीषा, मां से बहस क्यों?”
मनीषा ने आंखों में आए आंसुओं को रोका—
“तुमसे यही उम्मीद थी, कि तुम बीच में कुछ नहीं कहोगे। मैंने सिर्फ सहजता मांगी थी, कोई विद्रोह नहीं किया था।”
अगली सुबह मनीषा ने एक ठोस निर्णय लिया। उसने आलोक से सीधी बात की—
“मैं खुद को खोकर किसी की खुशी नहीं बन सकती। मैं यही घर, यही रिश्ते, सब निभाना चाहती हूं, लेकिन अपनी पहचान खोकर नहीं। मैं एक ऑनलाइन काम शुरू करने जा रही हूं—खुद के दम पर। और हां, रसोई में आज से सलवार-कुर्ता पहनूंगी। तुम्हें, या तुम्हारी मां को यदि इससे समस्या है, तो निर्णय तुम्हारे हाथ है।”
आलोक कुछ नहीं बोला, लेकिन इस बार उसने सिर झुकाने के बजाय आंखों में देखा और कहा—
“जो तुम कह रही हो, वह गलत नहीं है… मैं तुम्हारे साथ हूं।”
समय बीता, सास धीरे-धीरे मनीषा के फैसलों को स्वीकारने लगीं। मनीषा के आत्मविश्वास ने घर में एक नई सोच की शुरुआत की। पूजा भी जब मायके आई, तो उसने सास से कहा—
“भाभी ने बहुत साहस दिखाया मां, आपने उन्हें समझा, यह अच्छी बात है।”
हर स्त्री को अपने जीवन की पतवार खुद थामनी होती है। समझौते तब तक ही अच्छे लगते हैं, जब तक वे आत्मसम्मान को न निगल जाएं। मनीषा ने कोई विद्रोह नहीं किया—बस अपने जीवन को ‘स्वाभाविक’ और ‘सम्मानजनक’ बनाने की दिशा में पहला कदम उठाया।
क्योंकि रिश्तों में प्यार जरूरी है, पर आत्मसम्मान उससे भी ज़्यादा।
(लेखक राजस्थान टोंक में अध्यापक हैं और बहुआयामी व्यक्तित्व के स्वामी हैं। प्रशंसा के पात्र इसलिए भी हैं कि अध्यापन पेशा की व्यस्तता के बावजूद साहित्य साधना में रत रहते हैं। लेख, कविता, टिप्पणी अथवा कहानी, सबकुछ कहा है इन्होंने। धन्यवाद🙏💕 – संपादक, समाचार दर्पण)